पर्यायवाची शब्द प से

पर्यायवाची शब्द प से

प अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के पर्यायवाची शब्द  Paryayvachi Shabd | समानार्थी शब्द | All Hindi Synonyms | Paryayvachi shabd kise kahte hai | Paryayvachi shabd ka arth | | पर्यायवाची शब्द का अर्थ |

प अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के पर्यायवाची शब्द

पंक – कचला, कदम्ब, कर्दम, कलुष, कीच, कीचड़, गारा, चहला, चीखर।

पंकज – अब्ज, अंबुज, अंबोज, अंभोज, अज, अरविंद, अरभोरूह, इंदीवर, इंदुकमल, उत्पल, कंज, कमल, किंजल, कुंज, कुंद, कुई, कुटप, कुमुद, कुबलय, कुवलय, कुशेशय, कैरव, कोकनद, जलज, जलजात, तामरस, ताम्ररस, नलिन, नीरज, पंकजन्य, पंकरुह, पद्म, पाथोज, पुंडरीक, पुष्कर, राजीव, वनज, वारिज, वारिजात, शतदल, शतपत्र, श्रीपर्ण, सरसिज, सरसीरुह, सरोज, सहस्रदल, सारंग, सुजल।

पंकिल – कीचयुक्त, गंदा, गंदला, मलिन, मैला।

पंख – गरुत्, छद, डेना, पक्ष, पखना, पतत्र, पत्र, पर।

पंखा – पंखी, बेना, विजन, व्यजन।

पंगु – अपंग, अपाहिज, लंगड़ा, विकलांग।

पंडित – अभिज्ञ, आगर, कुशल, कुशाग्रयीमति, कृतमर्मा, कृतमुख, कृती, कृतधी, कृष्टि, कोविद, चतुर, तीक्ष्ण, दक्ष, दूरदर्शी, दोषज्ञ, धीमान, धीर, नागर, निपुण, निष्णात, नेदिष्ठ, पटु, प्रवीण, प्राज्ञ, प्रेक्षावान, प्रौढ, बुध, बुद्धिमान, बोद्धा, मतिमान, मनीषी, योग्य, लब्धवर्ण, विज्ञ, विज्ञानी, विचक्षण, विदग्ध, विदन्, विदुर, विद्वान, विपश्चित, विबुध, विशारद, शिक्षित, संख्यावान, सुधी, सुमति, सुमेधा।

पंथी – धर्मालंबी, पथिक, बटोही, राही, समर्थक।

पकौड़ी – चाणकी, पतौड़, फुलौरी, बटिका, रक्छ, रिक्छ, रिकवंच।

पक्ष – डैना, दल, पखवारा, पाख, वर्ग, समुदाय, स्थिति।

पक्षीअंडज, एत्री, खग, खेचर, गरुत्मान्, चंचुभृत, चिड़िया, चिरई, चिरैया, छुरण्ड, द्विज, नगौका, नभचर, नभसंगन, नाडीचरण, नीडोद्भव, पंछी, पखेरू, पतंग, पतत्री, पत्ररथ, पत्री, परिन्दा, विकिर, विहग, विहंग, विहंगन, शकुन्त, शकुन्ति, शकुन, शकुनि, सरण्ड।

पगड़ी – उष्णीष, पगिया, पाग, प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा, मुरैठा, समला, साफा, सिर फेंटा, सेला।

पड़ौसी – निकटवर्ती, निकटस्थ, पड़ौस का, पास का, समीपवर्ती।

पटरानी – अर्द्धासनी, बड़ी रानी, महारानी, महिषी, राज्ञी, रानी, राजपत्नी, राजमहिषी, स्त्री।

पट्टी – तखती, पट्ट, पटिया, पाटी।

पटु – अच्छा, अक्लमंद, आप्त, कर्मण्य, कामिल, काबिल, कुशल, क्षेम, खैरियत, गुणी, गुरु, चतुर, चरबाँक, चालाक, दक्ष, धुरंधर, नटवर, नागर, निपुण, निष्णात, नेक, पंडित, पारंगत, पीर, पेशक, पुण्यशील, प्रवीण, प्राज्ञ, प्रौढ, भला, मंगल, माहिर, योग्य, राजीखुशी, विज्ञ, विदग्ध, शातिर, श्रेष्ठ, सजग, सयाना, साधक, सिद्ध, सिद्धहस्त, सुघड़, सुजान, सुविज्ञ, सूत्थान, हातिम, हुनरमंद, होशियार।

पर्यायवाची शब्द paryayvachi shabd प से

पठानी लोध (एक प्रकार की औषधि) – अक्षिभेषज, क्रमुक, जीर्णपत्र, जीर्णबुघ्न, पट्टिका, पट्टिकालोध्र, पट्टी, लाक्षाप्रसादन, शाबर, स्थूलवल्कल।

पढना – अध्ययन करना, अभ्यास करना, याद करना, रटना, स्मरण करना।

पढाना – अध्यापन कराना, अभ्यास कराना, रटाना, सिखाना।

पतला – कमजोर, कृशित, झिनझिना, तरल, दुर्बल, निर्बल, महीन, शक्तिहीन।

पतवार – करिया, केनिपातक, दरित्र।

पताका – केतन, केतु, केतुक, चिह्न, चीन, झंडा, झंडी, तोरण, ध्वज, ध्वजा, निशान, फरहरा, वैजयन्ती।

पति – अधिप, अधिपति, अधिभू, अधीश, आर्यपुत्र, कान्त, कील, खसम, खाविंद, जीवितेष, धव, नर्म्म, नाथ, नेतार, परिणेता, परिवृड्, पिय, पिया, पीव, प्राणाधार, प्राणप्रिय, प्राणेश, प्रिय, प्रियतम, प्रियवर, बलम, बालम, बिलावल, भरता, भर्त्ता, भरतार, रतिगुरु, रमण, वर, वल्लभ, विभु, सुखोत्सव, सैंया, स्वामी, हृदयेश

पतिव्रता – दिव्या, पतिपरायणा, पतिभक्ता, भव्या, मनस्विनी, शुचिचिता, सती, साध्वी, सुचरित्रा।

पत्नी – अंगना, अर्धांगिनी, आर्या, ऊढा, कलत्र, कलम, कान्ता, कुलत्री, कुलवन्ती, गृहणी, गेहिनी, जनी, जाया, तिय, तिया, त्रिया, दयिता, दार, दारा, द्वितीया, धर्मचारिणी, परिग्रह, परिणिता, पाणिगृहिता, पाणिगृहीती, प्राणप्रिया, प्राणवल्लभा, प्रिया, बहू, बेगम, भार्या, भूयिष्ठ, मेहर, वधू, वनिता, वल्लभा, वामा, वामांगी, वामांगीत्रिया, सहचरी, सहधर्मिणी, सहभार्या।

पत्ता – किसलय, कोंपल, छद, छदन, दल, पतत्र, पत्र, पत्रक, पत्ती, पर्ण, पलास, पल्ल्व, पात, पान, वर्ण, वर्ह, विटपाभरण, विसल।

पत्थर – अशनि, अश्म, उपल, कुलिष, ग्राव, चट्टान, दृषत्, पखान, पाथर, पाषाण, पाहन, प्रस्तर, शिला, सिल।

पत्र – कागज, कागद, पत्रा, पन्ना, पृष्ठ।

पत्रा – जंत्री, तिथिपत्र, पंचांग, पन्ना, पृष्ठ, वर्क।

पथ्य – आहार, उपयुक्त, परहेज।

पथ – पंथ, मग, मार्ग, रास्ता, राह।

पदक – उपाधि, सम्मानजनक।

पद्मकाठ – केदारज, कैदार, चारु, पद्मक, पद्मकाष्ठ, पद्मवृक्ष, पद्मगन्धि, पद्माक, मद्माख, पीत, पीतक, पीतरक्त, मलय, मालेय, शीतल, शुभ, सुप्रभ।

पनाला – नाली, पनारी, पयस, प्रणाली।

पन्ना (खाद्य) – पना, पानक, प्रपानक।

पन्ना (रत्न) – अष्मगर्भ, अष्मगर्भज, गरलारि, गरुड़ांकित, गरुड़ाष्म, गरुड़ोत्तीर्ण, गरुड़ोद्गीर्ण, गारुड़, गारुत्मक, गारुत्मत, बुधरत्न, मरकत, मरक्त, राजनील, वाप्रबोल, सौर्पण, हरितमणि।

पर्यायवाची शब्द paryayvachi shabd प से

पपड़िया खैर – कदर, द्विजप्रिय, नेमिवृक्ष, ब्रह्मशल्य, महावृक्ष, श्यामसार, श्वेतसार, सफेद खैर, सोमवृक्ष, सोमसार।

पपीता – महाएरण्ड, महापंचांगुल, स्थूलएरण्ड।

पपीहा – चातक, तोकक, थपैया, पपीहरा, मेघजीवन, सारंग, स्तोकक, हरि।

पर्य्याय – अनुक्रम, आनुपूर्वी, आवृत्त, एकार्थ, एकार्थबोधक, एकार्थवाचक, परिपाटी, प्रकार, समानार्थक।

परंतु – किन्तु, पर, मगर, लेकिन।

परंपरा – परिपाटी, प्रथा, रिवाज, रीति, रूढ़ि।

परदा – आड़, ओझल, कनात, गुप्तता, छिपाव, जवनिका, तह, तिरस्करणी, पट, पटल, परत, प्रतिसीरा, यवनिका, वितान।

परमार्थ – उपकार, निर्वाण, परोपकार, भलाई, मोक्ष।

परवल – जनवल्लभा, पटोल, परवर, परोरा, पर्वरा, राजपटोल, राजपूर्वा, सुशाकी, स्वादिष्टा, स्वादु, स्वादुपटोल, स्वादुपत्रफल।

परशुराम – परशुधर, भार्गव, यामदग्नि, राम, रेणुकात्मज।

पराग – कुसुमराज, केशर, पुष्पधूलि, पुष्परज, रज, रेणु।

पराठा – चौपती, परावठा, परोठा, पौलिका, प्राम्ठा।

पराधीन – अधीन, गुलाम, नाथवान्, परतंत्र, परवश, परवान।

पराया – अन्य, और, गैर, दूसरा, बेगाना।

परिक्रमा – चक्कर, घुमरी, परिक्रमण, परिभ्रमण, प्रदक्षिणा, फेरा, फेरी।

परिचय – ज्ञान, जानकारी, पहचान, मुलाकात, मेल।

परिणय – पाणिग्रहण, ब्याह, विवाह, शादी।

परिणाम – अंजाम, नतीजा, निष्कर्ष, फल।

परिताप – क्लेश, गर्मी, जलन, तकलीफ, ताप, दर्द, दुःख, व्यथा।

परितोष – खुशी, तृप्ति, प्रसन्नता, संतुष्टि, संतोष, हर्ष।

परिपाटी – क्रम, ढंग, पद्धति, रीति, शैली, श्रेणी, सिलसिला।

परिवर्तन – तबदीली, फेरबदल, बदलाव, हेरफेर।

परिश्रमी – उद्यमी, उद्योगशील, उद्योगी, क्रियाशील, पुरुषार्थी, मेहनती।

परिष्कार – निर्मलता, परिशोधन, शुद्धि, संस्कार, सफाई, सुधार, स्वच्छता।

परिस्थिति – अवसर, अवस्था, दशा, समय।

परीक्षक – अन्वेषक, कारणिक, जाँचक।

परोक्ष – अगोचर, अप्रत्यक्ष, ओझल, गुप्त, तिरोहित।

परोपकार – उपकार, कल्याण, दान, नेकी, परकल्याण, परकाज, परमार्थ, परहित, परार्थ, भलाई, हित।

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पर्वत – अंक, अग, अगम, अचल, अद्रि, अभ्रंषक, अभ्रिलिह, अवनिध्र, अवनिपाल, अवनिपालक, अवनीध्र, अवनीपाल, अवनीपालक, अवि, अष्मा, अहार्य, इलाधर, उर्वीधर, कंदराकर, कटकी, ककदमक, ककुदमान, ककुद्मी, कीलक, कुट, कुट्टार, कुट्सर, कुठि, कुधर, कुधृत, कुली, कुहसार, कूट, कोह, कोहसार, क्षमाधृत, क्षितिधर, क्षैणिभृत, क्षौणीधर, क्ष्माधर, क्ष्माभृत, खलतिक, गिर, गिरि, गिरिवर, गोत्र, गोधर, गोध्र, गोभृत, ग्राव, ग्रावा, घाट, चिकुर, जंबुमत, जंबूमान, जगतीधर, जबल, जीभूत, जीभूतकूट, ताड़, तालिश, तुंग, तुंगशेखर, दन्ती, दरत, दरद, दरीभृत, दर्दर, धर, धरणिधर, धरणिभृत, धरणीकीलक, धरणीधृत, धरणीभृत, धराधर, धराधरन, धातुभृत, ध्वजी, नग, नाकु, नाग, निरझरी, निर्झरी, निष्चलंग, पत्री, पयोधर, परबत, परु, पर्वतक, पहाड़, पहाड़ी, पारावत, पृथिवीभृत, पृथुशेखर, पृथ्वीधर, फलिक, बंधाकी, बलाहक, भूधर, भूध्र, भूभृत, भूमिदेव, भूमिधर, भृत, मन्दर, मरु, महीधर, महीध्र, महीभृत, मेरु, रजत, लौहित्य, वर्षधर, वलाहक, वसुंधराधर, वसुधाभृत, विगर, वृत्त, व्यंशक, शंबर, शक्रि, शक्री, शलक, शिखर, शिखरी, शिखी, शिलाचय, शिलोच्चय, शृंगधर, शृंगी, शैल, सद्रि, समच्छ्रय, सहस्य, सहिर, सह, सानुमान, सिंधिमंथ, सुनाम, सुनामक, सृंगी, सैल, स्तंब, स्थावर, स्थिर, हंस।

पर्वत-शिखर – कूट, दिवेश, मेरु, शिखर, शृंग, सुमेरु।

पलक – तारक, निमीलन, निमेष, नेत्रच्छद, पक्ष्म, पपनी, पल।

पलना – पनपना, पालित होना, पोषित होना, पोस होना, बढना।

पलंग – खटिया, खट्वा, चारपाई, तल्प, पर्यक, पलंक, पलंगरी, मंच, शयनीय, शैया, सेज।

पलाश – कनक, करक, कांकरिया, काष्ठद्रु, किंषुक, किर्मीधाक, कृमिघ्न, केसू, केसूढाक, क्षारश्रेष्ठ, टेसू, ढाक, त्रिपत्रक, त्रिपर्ण, दीर्घपत्री, धारा, पलंकषा, पलाशक, पलास, पर्ण, पूतदु, बातपोथ, बीजस्नेह, ब्रह्मद्रुम, ब्रह्मपलाष, ब्रह्मवृक्ष, ब्रह्मोपनेता, याज्ञिक, यूप्य, रक्तपुष्प, रक्तपुष्पक, राजादन, लाक्षातरु, वक्रपुष्पक, वातपोथ, समद्विर, सुपर्णी, हस्तिकर्ण।

पलोटना – कुचलना, दबाना, मींजना, सेवना।

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पवन – अक्षति, अजगतप्राण, अनिल, अपान, आवक, आशुग, उदान, कम्पलक्ष्मा, खश्वास, गंधवह, चंचल, जगतप्राण, झंझा, धूलिध्वज, नभप्राण, नभस्वर, नभस्वान्, निश्वासक, पवमान, पृषतांपति, पृषदष्व, प्रकम्पन, प्रभंजन, प्राण, बतास, बयार, भोगिकान्त, मरुत, मातरिश्वा, मारुत, मृगवाहन, वात, वाति, वायु, वास, विहग, व्यान, शसिनी, श्वसन, सदागति, समीर, समीरण, सरट, सरण्य, सरिमन, सवेग, सार, सुखाश, सूक, स्तनून, स्पर्शन, स्वकम्पन, हरि, हवा।

पवित्र – अमल, निर्मल, पर्यत, पाक, पावन, पुण्य, पुनीत, पूत, पूता, मेघ्य, विमल, विशुद्ध, शुचि, शुद्ध, साफ, स्वच्छ।

पवित्रता – अदूषण, निर्मलता, निर्दोषत्व, निर्दोषिता, पूतत्व, शुचिता, शुचित्व, शुद्धता, स्वच्छता।

पशु – चतुष्पद, चौपाया, जंतु, जानवर, मवेशी।

पश्चिम – पच्छिम, पच्छू, प्रतीची।

पश्चात – अथ, अन्तर, अनन्तर, उपरान्त, तदन्तर, तदनन्तर, पुनः, फिर, बहुरि।

पसली – पंजर, पंजरी, पँजरी, पँसली, पंसली।

पसीना – उष्मा, ताप, प्रस्वेद, स्वेद, स्वेदन।

पसोपेश – असमंजस, आगा-पीछा, ऊहापोह, दुविधा, सोच-विचार।

पस्त – झुका हुआ, थका हुआ, दबा हुआ, पराजित, हारा हुआ।

पहचानना – चीन्हना, जानना, परिचय पाना।

पहनना – धारण करना, परिधान करना, लपेटना।

पहनावा – परिधान, पहरावा, पहिनावा, पोशाक, लिबास।

पहरेदार – ड्योढीदार, दौवारिक, द्वारपाल, द्वारस्थ, पौर, प्रतीहार, प्रहरी, वेत्रक, वेत्रधार, स्थितदर्शक।

प अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के पर्यायवाची शब्द

पहाड़ – अंक, अग, अगम, अचल, अद्रि, अभ्रंषक, अभ्रिलिह, अवनिध्र, अवनिपाल, अवनिपालक, अवनीध्र, अवनीपाल, अवनीपालक, अवि, अष्मा, अहार्य, इलाधर, उर्वीधर, कंदराकर, कटकी, ककदमक, ककुदमान, ककुद्मी, कीलक, कुट, कुट्टार, कुट्सर, कुठि, कुधर, कुधृत, कुली, कुहसार, कूट, कोह, कोहसार, क्षमाधृत, क्षितिधर, क्षैणिभृत, क्षौणीधर, क्ष्माधर, क्ष्माभृत, खलतिक, गिर, गिरि, गिरिवर, गोत्र, गोधर, गोध्र, गोभृत, ग्राव, ग्रावा, घाट, चिकुर, जंबुमत, जंबूमान, जगतीधर, जबल, जीभूत, जीभूतकूट, ताड़, तालिश, तुंग, तुंगशेखर, दन्ती, दरत, दरद, दरीभृत, दर्दर, धर, धरणिधर, धरणिभृत, धरणीकीलक, धरणीधृत, धरणीभृत, धराधर, धराधरन, धातुभृत, ध्वजी, नग, नाकु, नाग, निरझरी, निर्झरी, निश्चलंग, पत्री, पयोधर, परबत, परु, पर्वत, पर्वतक, पहाड़ी, पारावत, पृथिवीभृत, पृथुशेखर, पृथ्वीधर, फलिक, बंधाकी, बलाहक, भ, भूधर, भूध्र, भूभृत, भूमिदेव, भूमिधर, भृत, मन्दर, मरु, महीधर, महीध्र, महीभृत, मेरु, रजत, लौहित्य, वर्षधर, वलाहक, वसुंधराधर, वसुधाभृत, विगर, वृत्त, व्यंशक, शंबर, शक्रि, शक्री, शलक, शिखर, शिखरी, शिखी, शिलाचय, शिलोच्चय, शृंगधर, शृंगी, शैल, सद्रि, समच्छ्रय, सहस्य, सहिर, सह, सानुमान, सिंधिमंथ, सुनाम, सुनामक, सृंगी, सैल, स्तंब, स्थावर, स्थिर, हंस।

पहुँची – आवापक, कटका, पारिहार्य, प्रकोष्ठभरण, वलय।

पहेली – कूटप्रश्न, प्रवह्ली, प्रवह्लिका, प्रश्नदूती, प्रहेलिका, प्रहेली, बुझौवल, मुअम्मा, मुकरी।

पाकर (एक पेड़) – अश्वत्थी, कंदरालु, कपीतन, कमण्डलु, कमण्डलुतरु, कर्परी, क्षीरी, गर्दभाण्ड, चारु दर्शिनी, जटी, दृढप्ररोह, पकड़ी, पर्कटी, पर्काटी, पाकड़, पाखर, पिपरी, पिलखन, पीतन, प्लक्ष, प्लक्षा, प्लीक्षा, प्लवक, प्लवंग, महाबल, वटी, वरोहशाखी, शृंगी, सुपार्श्व।

पाखंड – आडम्बर, कपट, छद्म, छल, ढोंग, धूर्तता, धोखा, प्रपंच, मिथ्याचार।

पागल – नासमझ, मतवाला, मतिभ्रष्ट, मूर्ख, बावला, बेवकूफ, बौरहा, बौराहा, मतिभ्रष्ट, विक्षिप्त, सनकी।

पाट – चौड़ाई, तख्ती, पटिया, फैलाव, राजगद्दी, विस्तार, सिंहासन।

पाठशाला – चटशाला, गुरुकुल, गुरुगृह, सरस्वतीभवन, विद्यापीठ, विद्यामंदिर, विद्यालय।

पाणिनी – आहिक, दाक्षीपुत्र, शालंकी, शालातुरीय।

पातक – अघ, कल्मष, गुनाह, पाप।

पाताल – अघ, अधोभुवन, उरगस्थान, नागलोक, बलिसद्म, रसातल।

पान – गागरबेल, ताम्बूल, दीवामीष्टा, नागबेल, नागवल्ली, नागिनी, पर्णलता, बालदल, भक्षपत्रा, मुखभूषण, मुखमंडन, मुखवास, सप्तशिला।

पाना – उपलब्ध करना, पावना, प्राप्त करना, लहना।

पानी – अन्ध, अधोगति, अप, अभ्रपुष्प, अम्बु, अम्भ, अमृत, अर्ण, अरविन्दानि, अप, इरा, उद, उदक, उषीर, ऊर्ज्ज, ऋत, ओज, कबन्ध, कमल, कम्बल, कर्बुर, कश, काण्ड, कीलाल, कुलीन, कुलीनस, कुश, कृत्स्न, कृपीट, कै, कोमल, क्षत्र, क्षर, क्षीर, क्षोद, खस, गन, गो, घृत, चन्द्रोरस, छद्म, जड़, जन्म, जल, जलपीथ, जामि, जीवन, जीवनीय, तामर, तुग्या, तोय, दक, धनरस, धरुण, नभ, नीर, पय, पर्य्य, पात, पाथ, पानी, पानीय, पिप्पल, पुरीष, पुष्कर, पूर्ण, पूर्वाषाढा नक्षत्र, पेय, बन, भुवन, भेषज, मधु, मेघपुष्प, मेघप्रसव, यादोनिवास, रयि, रस, रेत, वनजीवम, वरुण, वसु, वाः, वाज, वारि, विष, वृबूक, व्योम, शम्बर, शुभ, सम्ब, सम्बल, सदन, सर, सर्व, सर्वतोमुख, सल, सलिल, सवर, सरिल, सह, सारंग, सुरा, सोम, स्यन्दन, हरि।

पाप – अघ, अधर्म, अनाचार, अनिष्ट, अनीत, अपकर्म, अपकृति, अपधर्म, अपराध, अपवाद, अह, एन, कलुष, कल्मष, कसूर, किल्विष, कुकर्म, कुदृष्ट, कुधर्म, गुनाह, जुल्म, तूस्त, दुरित, दुष्कृत, दुष्कृत्य, पंक, पातक, पापक, विधर्म, वृजिन, शल्य।

प अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के पर्यायवाची शब्द

पापी – अधम, अपचारी, असज्जन, असाधु, ओछा, कदाशय, कपटी, कमीन, कमीना, काक, काला, कीच, कुटिल, कुत्सित, कुसीद, कुमति, कुमाणस, क्रूरात्मा, क्षुद्र, खल, खोटा, दुराचारी, दुरात्मा, दुर्जन, दुर्मति, दुष्ट, दुष्टात्मा, दोषग्रस्त, धूर्त, निकृष्ट, नीच, पलीद, पातकी, पाजी, पापिष्ठ, पामर, पिशुन, बुरा, मक्कार, वंचक, शठ, शैतान, हरामी।

पापड़ – चरक, पर्पट।

पारा – अचिन्तज, अमर, अमृत, अवित्तज, खेचर, चपल, जैत्र, त्रिनेत्र, दिव्य रस, दुद्धर, देव, देहद, पार, पारद, प्रभु, महातेज, महारस, मूर्त्ति, मृत्युनाषक, यशोद, रजस्वल, रस, रसधातु, रसराज, रसलेह, रसायन श्रेष्ठ, रसेन्द्र, रसोत्तम, रुद्रज, रोपण, लोकेश, लोहेश, शिव, शिवबीज, शिववीर्य, शिवाह्वय, सिद्धधातु, सूतक, सूतराट्, सून, स्कन्द, स्कान्दांशक, स्वामी, हरतेज, हेमनिधि।

पारिषद – दरबारी, परिषद्वल, परिसभ्य, पर्षद्वल, पार्षद, सभासद, सभास्तार, सभ्य, साधु, सामाजिक।

पार्थक्य – अलगाव, जुदाई, पृथकता, प्रभेद, भिन्नता, भेद, वियोग।

पार्वती – अंबा, अंबिका, अपर्णा, अभया, आर्या, इला, ईश्वरा, ईश्वरी, उमा, कपर्दिनी, कात्यायिनी, काली, कुमारी, गिरिजा, गिरितनया, गौरा, गौरी, चंडिका, जया, त्रिभुवनसुंदरी, दाक्षायणी, दुर्गा, देवेशी, नंदा, नंदिनी, पतिव्रता, पर्वतजा, पार्थिवी, ब्रह्मचारिणी, भगवती, भवभामिनी, भववामा, भवा, भवानी, भ्रमरी, मंगला, मालवी, माया, मेनकात्मजा, मैनादुलारी, मैनासुता, रुद्राणी, विश्वकारिणी, शंकरप्रिया, शंकरी, शक्ति, शर्वाणी, शांति, शिवा, शिवानी, शिवार्द्धांगिनी, शैलकुमारी, शैलजा, शैलनंदिनी, शैलसुता, शैलात्मजा, सती, सर्वणा, सर्वमंगला, सावित्री, सिंहवाहिनी, हिमजा, हिमगिरिसुता, हिमाचलसुता, हेमवती, हेमसुता, हैमवती।

पालक – क्षुरपत्रिका, क्षुरिका, ग्रामिणी, ग्राम्यवल्लभा, पालंक, पालंक्या, पालकी, मधुरा, वास्तुकाकारा, सुपत्रा, स्निग्धपत्रा।

पालकी – याप्ययान, शिविका।

पालन – अनुगमन, कार्यान्वयन, परवरिश, पालन-पोषण, भरण-पोषण, लालन-पालन।

पालना – पालना करना, पोषण करना, पोसना, प्रतिपालन करना, भरण करना, रक्षा करना।

पाला – अवश्याय, ओला, कुहरा, कोहरा, ठंडक, तुषार, तुहिन, नीहार, प्रालेय, बर्फ, मिहिका, शीतलता, हिम।

पास – आस-पास, करीब, तरफ, दिशा, नजदीक, निकट, निकटता।

पाहुना – अतिथि, अभ्यागत, पाहुन, मेहमान।

पिचकना – दबना, धँसना, बिचकना, सिकुड़ना, सिमटना।

पिछलग्गा – अधीन, अनुचर, आश्रित, चेला, टहलुआ, नौकर, सेवक।

पर्यायवाची शब्द paryayvachi shabd प से

पिता – गुरू, जनक, जन्मद, जन्य, जनयिता, जनिता, तात, तातश्री, पालक, पितु, पितृ, प्रसवी, बप्पा, बाप, बापू, बाबुल, वप्ता, वप्र, वीजी, सविता।

पित्तपापड़ा – अरक, कटुपत्र, कवचनामक, कलपांग, कृष्णाशाख, चरक, तिक्त, तृष्णारि, त्रियष्टि, दवनपापड़ा, नक्र, पर्पट, पर्पटक, पांशु, पांशुपर्य्याय, पित्तारि, रक्तपुष्पक, रेणु, वरक, वरतिक्त, वर्मकंटक, शीत, शीतप्रिय, शीतवल्लभ, सुतिक्त।

पिस्ता – चारुफल, जलगोजक, निकोचक, पिस्त, मुकूलक, सकोच।

पीकदान – आचमनक, कटकोल, निष्ठीवनपात्र, पतग्रह, पद्दग्रह, पीकदानी, प्रतिग्राह, प्रोण्ठ।

पीतल – आर, आरकूट, कपिला, कपिलोह, कांची पीतल, क्षुद्रसुवर्ण, पतिकाबेर, पिंग, पिंगल, पिंगल लोह, पित्तल, पीतक, पीत धातु, पीतनक, पीतलोह, ब्रह्माणी, ब्रह्मरीति, ब्राह्मी, महेश्वरी, मिश्र, राज्ञी, राजपुत्री, राजरीति, रिरी, रीति, रीरा, लोह, लोहितक, सिंहल, सुवर्णक, हरिलोह।

पीपल (पेड़) – अच्युतावास, अष्वत्थ, कटुबीजा, कपीतन, कुंजराशना, केशवालय, क्षीरद्रुम, गजखाज, गजभक्षण, गजासन, गुह्यपुष्प, चलदल, चलपत्र, चैत्यद्र, चैत्यवृक्ष, देवात्मा, द्रुमदेव, धनुर्वृक्ष, नागबन्धु, पादचत्वर, पवित्रक, पिप्पल, प्रियंगु, बोधि, बोधिद्रुम, मंगल्य, महाद्रुम, याज्ञिक, रोहित, वातरंग, वासुदेव, विप्र, वृक्षराज, शुचिद्रुम, शुभद, श्यामल, श्रीमान्, सत्य, सत्यहरिवास, सुपार्श्व, सेव्य, श्रीमान।

पीपल (औषधि) – उपकुल्या, उष्ण, कटी, कटुबीजा, कणा, कृष्णा, कोरंगी, कोला, चंचला, चपला, तिक्त तण्डुला, पिप्पली, पीपर, मागधी, वैदेही, शौण्डी, सूक्ष्म तण्डुला।

पीयूष – अगदकार, अन्न, अनाज, अमिय, अमी, अमृत, इन्द्र, उड़द, घी, जीवनोदक, जल, जीवित, दिव्य-पदार्थ, दूध, देवता, धन, धवन्तरि, पानी, पारा, भोजन, मधु, मुक्ति, विष, शशिरस, शहद, शिव, सार, सुधा, सुरभांग, सुरभोग, सूर्य, सोना, सोम, सोमरस, स्वर्ग।

पीला – कपिल, कपिस, केसरिया, गौर, जाफरानी, नारंगी, पिंग, पिंगल, पिसंग, पीत, बसंती, शरबती, सुनहला, सुपीत, हरिद्राभ, हल्दिया।

पुखराज – गुरुरत्न, जीवरत्न, पीत, पीतमणि, पीतरत्न, पीतस्फटिक, पुष्पराग, पुष्पराज, पोखराज, वाचस्पतिवल्लभ।

पुण्य – उत्तम कर्म, कर्म, कल्याणकारी, धर्म, पवित्र, पावन, मंगलदायक, वृष, शुभ, शुभादृष्ट, शोभन, श्रेय, सत्कर्म, सुकृत, सुगंधि।

पुत्र – अपत्य, आत्मज, आत्मजन्मा, कुलाधारक, ज, तनय, तनुज, दारद, दायाद, नंद, नंदन, पूत, बेटा, लड़का, लाल, वत्स, सुअन, सुत, सूनु, स्वज।

पर्यायवाची शब्द paryayvachi shabd प से

पुत्री – अपत्या, आत्मजा, कन्या, कन्यका, जा, जाया, तनजा, तनया, तनुजा, दारिका, दुहिता, नन्दिनी, पुत्रका, पुत्रिका, बेटी, लड़की, सुता, सुधा, स्वजा।

पुदीना – अजीर्णहर, पुदिन, रुचिष्य, वान्तिहारी, व्यंजन, शाकशोभन, सुगन्धिपत्र।

पुरवासी – नगरवासी, नागरिक, पौर, प्रज, प्रजन।

पुराना – चिरकालिक, चिरन्तन, दिनी, पुराण, पुरातन, प्राचीन।

पुरुष – अर्थवान, अर्थाश्रय, आदमी, इंसान, कर्मार्ह, काम्य, जन, धव, नर, नृ, पंचजन, पुमान, पूरुष, मदन-सायकांक, मन्मथसायक-लक्ष्य, मनु, मनुज, मनुपुत्र, मनुष्य, मर्द, मानस, मानव, मानुष, मर्त्य, व्यक्ति, सौम्य।

पुरोहित – पंडा, पुरोधा, पोधा, पौरोहित, प्रोहित, संख्यावान।

पुलाव – पलान्न, पुलाक, पोलाव, मांसोदन।

पुष्कर – आहट, कासार, जलवान, जलाशय, तड़ाग, तलैया, ताल, तालाब, पद्माकर, पल्लव, पुष्पकरण, पुष्करिणी, पोखर, पोखरा, सत्र, सर, सरक, सरस, सरस्वत, सरसी, सरोवर, सारंग, हृद।

पुष्कर तीर्थ – ब्रह्मकृततीर्थ, रूपतीर्थ, सुखदर्शन।

पुष्करमूल – काश्मीर, जटा, पद्मकर्ण, पद्मपर्ण, पद्मपुण्य, पुष्कर, पुष्करणी, पोहकर मूल, पौष्कर, ब्रह्मतीर्थ, मूलपुष्कर, शूल, शूलघ्न, सागर, सुमूलक।

पुष्ट – कठिन, दृढ, पोढ।

पुष्प – कुसुम, गुल, पीलु, पुहुप, प्रसून, फलपिता, फूल, मंजरी, मणीचक, समद, सारंग, सुम, सुमन, सुमनस, सून।

पुष्पमाला – माला, मालिका, स्रक।

पुष्प-रस – पुष्पज, पुष्पद्रव, पुष्पाम्बुज, पुष्पनिर्यासक, पुष्पसार, पुष्पस्वेद, मकरन्द, मधु।

पुस्तक – किताब, ग्रंथ, पुस्तिका, पोथी।

पूँछ – दुम, पुच्छ, पुच्छल, लांगूल।

पूड़ी – पूरी, पूलिका, शष्कुली, सोहारी।

पूड़ी (मीठी) – पूरन-पूड़ी, पूरनपोली, पूर्णगर्भापूलिका, पूर्णपूलिका, मीठी पूड़ी।

पूजा – अर्चना, अर्चा, अपचिति, अर्हण, आराधन, आराधना, नमन, नूति, पूजन, सपर्य्या।

पूज्य – आदरणीय, गण्य, गण्यमान्य, मान्य, पूजनीय, प्रतीक्ष्य, श्रद्धेय।

पूर्ण – अखण्ड, अखिल, अन्नक, अशेष, कुल, कृत्स्न, निखिल, निःशेष, निष्पन्न, पूरा, संपूर्ण, सकल, सब, समग्र, समस्त, सर्व, सान्त, सारा।

पूर्व – पुरुव, पूरब, प्राची।

पूर्वज – अग्रजन्मा, पिता, पितामह, पुरखा, पूर्वज, पूर्वपरुष, बड़ा-बूढ़ा, बुजुर्गवार, वृद्ध।

पृथक – अन्य, अलग, जुदा, दूसरा, पृथक्कृत, भिन्न, विभक्त।

पृथु – अनगिनत, असंख्य, चौड़ा, मोटा, विशाल, विस्तृत।

प अक्षर से पर्यायवाची शब्द

पृथ्वी – अग्निगर्भा, अचलकीला, अचला, अनन्ता, अदिति, अब्धिमेखला, अवनी, अर्णवनेमि, आदिमा, आद्या, इड़ा, इड़िका, इरा, इला, इलिका, इहलोक, उदधिवस्त्रा, उरा, उर्वरा, उर्वि, ऊर्वी, काष्यपी, कुंभिनी, कु, क्रीड़ाकान्ता, क्षमा, क्ष्मा, क्षांता, क्षिति, क्षोणी, खंडनी, खगवती, गंधवती, गह्वरी, गिरिकर्णिका, गो, गोत्रा, गोलक, गोला, गौ, जगत, जगती, जगद्वहा, जमीन, जल-थल, जीवधानी, ज्या, तृणधरी, थली, देहिनी, द्वीपवती, द्विरा, धरणि, धरणी, धरणीधरा, धरती, धरा, धरातल, धरित्र, धरित्री, धात्री, धारणी, धारयित्री, धारिणी, धेनु, नेमि, पहुमि, पारा, पिरथी, पुहिम, पुहुमी, पृथवी, पृथिवी, पृथु, भद्रा, भुअन, भुइँ, भुई, भुव, भुवन, भुवि, भू, भूतधात्री, भूतल, भूमा, भूमि, भूर्लोक, मधुजा, मनुष्यलोक, मर्त्यलोक, महाकान्ता, महास्थली, महि, मही, मेदिनी, रत्नगर्भा, रत्नवती, रसा, रेणुका, रोदसी, लोक, वरा, वसुधा, वसुन्धरा, वसुमति, वसुमती, वाराही, विपुला, विश्वम्भरा, विश्वा, वीजप्रसू, शैलधारा, श्यामा, सप्तद्वीपा, सप्तलोकी, सप्तार्णव, समुद्रनेमि, समुद्रांबरा, सर्वसहा, सहा, सागरधरा, सागरांता, सागराम्बरा, सारँग, सुरभि, स्थली, स्थिरा, हरिप्रिया।

पृष्ठपोषण – अनुमोदन, मदद, समर्थन, सहायता, हिमायत।

पेड़ – अंध्रिप, अग, अगछ, अगम, अद्रि, अर्नुत, अनोकह, इकपद, कुज, कुट, गाछ, चेड़, छदी, तरु, तरुवर, दली, दारु, द्रु, द्रुम, द्विप, पटल, पत्री, पलाषी, पर्णी, पादप, पीढ़ा, पौधा, फली, बर्हि, बिरवा, भूरुह, मधु, महीरुह, रूँख, विटप, विनद, वृक्ष, शाखी, शाल, सरोरुह, सुखआल।

पेट – उदर, कुक्षी, कोख, जठर, तुन्द, तोंद, पिचण्ड।

पेटू – आत्मम्भरि, कुक्षिभरि, भुक्खड़, स्वोदरपूरक।

पेठा – कर्कारू, कुंचफला, कुम्हड़ा, कुष्माण्डक, कुष्माण्डी, कूष्माण्ड, कोंहड़ा, ग्राम्यकर्कटी, तिमिष, नागपुष्पफला, पीतपुष्प, पुष्पफल, बृहत्फल, भथुआ, सिखिवर्द्धक, सुफला।

पेशकश – उपहार, तोहफा, नजर, भेंट, सौगात।

पेशा – उद्यम, उद्योग, काम, कामकाज, कारोबार, कार्य, धंधा, रोजगार, व्यवसाय।

पैदावार – उत्पादन, उपज, फसल।

पैर – अधमांग, अंघ्री, कदम, क्रमण, चरण, टंगरी, टांग, नांव, पाँव, पग, पद, पाद, पैयां, पौलि, प्रपद, विक्रम।

पैर की उँगली – पदपल्लव, पदाग्र, पादांगुली, प्रपद।

पैसा – टका, दौलत, धन, नकदी, माल, रुपया-पैसा, संपत्ति, सिक्का।

Paryayvachi shabd – पर्यायवाची शब्द

पोय (एक प्रकार का शाक) – अपोदिका, उपोती, उपोदकी, उपोदिका, कलम्बी, पिच्छिला, पिच्छिलच्छदा, पूतिका, पोई, मदषाक, मोहिनी, वलिमोदकी, विशाला, वृश्चिक प्रिया।

पोस्त – अफीम का फल, उल्लसत्फल, खसफल, खसखसफल, खाखसफल, पोस्त के डोरे।

पौत्र – नप्ता, नाती, पुत्रात्मज, पोतड़ा, पोता।

पौत्री – पुत्रात्मजा, पोतड़ी, पोती।

पौधा – क्षुद्रवृक्ष, क्षुप, पेड़, लघुवृक्ष, शिफ, हृस्वशाखा।

पौरस्त्य – प्राच्य, पूरबी, पूर्वी, मशरिकी।

प्रकट – अवतरित, जाहिर, प्रकाशित, प्रत्यक्ष, प्रसिद्ध, विदित, व्यक्त, साक्ष, साक्षात्, स्पष्ट।

प्रकार – किस्म, ढंग, तरह, भाँति, भेद, रीति, सादृश्य।

प्रकाश – आभा, आलोक, उजाला, उजास, चमक, छवि, ज्योति, तेज, दीप्ति, द्युति, प्रभा, रोशनी, विकास।

प्रकृत – असली, यथार्थ, वास्तविक, सत्य, सहज, साधारण, स्वाभाविक।

प्रगति – उन्नति, तरक्की, विकास।

प्रगल्भ – अहंकारी, अभिमानी, उत्साही, घमंडी, धृष्ट, निडर, निर्भय, निर्लल्ज, साहसी।

प्रचुरता – अधिकता, प्राचुर्य, बहुतायत, बहुलता, विपुलता, व्यापकत्व।

प्रच्छद – आच्छादन, आवरण, ढकना।

प्रजा – अधीन, आश्रित, जन, शासित, संतान।

प्रणय – अनुराग, प्रीति, प्रेम, स्नेह।

प्रणाम – अभिवादन, चरण स्पर्श, दण्डवत्, नमन, नमस्कार, पादग्रहण, पायलागन, प्रणिपात।

प्रणेता – अगुआ, अग्रसर, अधिपति, नायक, नेता, प्रधान, प्रमुख, प्रेरक, मुखिया, संचालक, सरदार।

प्रताप – असर, आभा, चमक, तेज, द्युति, प्रचंडता, प्रभाव, बहादुरी, रोबदार, विभा, वीरता, शक्ति।

प्रतिकूल – उल्टा, खिलाफ, विपरीत, विरुद्ध, विलोम।

प्रतिज्ञा – आश्रव, करार, कसम, कौल, नियम, नेम, पण, पैज, प्रण, प्रतिज्ञात, प्रतिश्रय, वचन, वायदा, शपथ, संविद, संश्रव, सौगंध।

प्रतिदिन – रोज, रोज-रोज, रोजाना, हर दिन, हर रोज।

प्रतिभा – अक्ल, ज्ञान, प्रज्ञा, बुद्धि, समझ, समझबूझ।

प्रतिध्वनि – झाँई, प्रतिध्वान, प्रतिनाद, प्रतिशब्द, प्रतिश्रुत।

प्रतिरोध – अवरोध, निषेध, बाधा, मना, रुकावट, रोक, विघ्न।

प्रतिलिपि – अनुलिपि, अनुकृति, नकल, प्रतिरूप, प्रतिलेख।

प्रतिशोध – प्रतिकार, प्रतिदण्ड, प्रतिफल, प्रतिहिंसा, बदला।

प्रतीक्षा – अयेक्षा, बाट जोहना, राह देखना।

प्रतीत – अवगत, ज्ञात, भान, विदित।

प्रदेश – क्षेत्र, जगह, देश, भूखंड, राज्यक्षेत्र, रियासत, शासनक्षेत्र, स्थान।

प्रबंध – निबन्ध, रचना, लेख।

Paryayvachi shabd – पर्यायवाची शब्द

प्रधान – खास, नेता, मुखिया, मुख्य, श्रेष्ठ, सरदार।

प्रभा – आभा, छवि, प्रकाश, दीप्ति, द्युति, चमक, सूर्यबिम्ब, सूर्यमंडल।

प्रमत्त – असावधान, घमंडी, पागल, बावला, बेपरवाह, मस्त, मतवाला, लापरवाह।

प्रमाद – अनवधानता, अव्यवस्थितचित्तता, असावधानी, भूल, भ्रम।

प्रयत्न – उद्योग, उद्यम, कोशिश, चेष्टा, दौड़धूप, प्रयास, यत्न।

प्रयागराज – तीर्थपति, तीर्थराज, तीर्थेश, दशाश्वमेध तीर्थ, प्रयाग।

प्रयोग – इस्तेमाल, उपयोग, जाँच, व्यवहार, सेवन।

प्रयोजन – अभिप्राय, अभिलाषा, आकांक्षा, आशय, इच्छा, उद्देश्य, कांक्षा, कामना, तात्पर्य, मंशा, मतलब, सम्मति।

प्रलय – कल्प, कल्पान्त, क्षय, नाश, प्रलयकाल, संवर्त।

प्रलाप – अनर्थभाषण, जक, जल्प, दुर्वाद, बक-बक, मिथ्यालाप।

प्रवीण – कुशल, चतुर, निपुण, बुद्धिमान, होशियार।

प्रवीणता – कुशलता, चतुराई, दक्षता, होशियारी।

प्रशंसा – अभिनंदन, गुणगान, तारीफ, बड़ाई, महिमागान, महिमामंडन, स्तुति।

प्रसवगृह – अरिष्ट, जननावास, प्रसूतिकागृह, सीवड़, सूतिकागृह, सौरी।

प्रस्ताव – अवसर, कथानुष्ठान, निवेदन, प्रकरण, प्रसंग, प्रसंग निवेदन, वृत्तान्त-निवेदन, स्तुति।

प्राज्ञ – चतुर, बुद्धिमान, महाज्ञानी, विद्वान।

प्राचीन – आदिकाल, आदिकालीन, आदिम, पुराना, पूर्वकालीन, भूतकालीन।

प्राचीर – चहारदीवारी, चारदीवारी, परकोटा।

प्राणी – जानवर, जीव, जीवधारी, प्राणधारी, प्राणवान।

प्रातः – अरुणोदय, अहर्मुख, उषाकाल, दिनमुख, निशांत, प्रभात, प्रातःकाल, पौ, भोर, विहान, सकाल, सवेर, सवेरा, सुबह।

Paryayvachi shabd – पर्यायवाची शब्द

प्रार्थना – अभ्यर्थना, अरदास, अर्ज, आर्तवचन, दीनता, नम्रता, निवेदन, माँगना, विनती, विनय।

प्रासाद – महल, राजनिवास, राजभवन, राजमहल।

प्रिय – अनुकूल, अपेक्षित, आप्तुमिष्ट, अभिलषित, अभीष्ट, इच्छित, इष्ट, ईप्सित, प्यारा, वांछित।

प्रेक्षागार – अभिनयशाला, अभिनयस्थल, नाचघर, नाटकघर, नाटकभूमि, नाट्यगृह, नाट्यशाला, नृत्यशाला, प्रेक्षागृह, रंगभूमि, रंगमंच, रंगालय, रंगशाला, रंगस्थल।

प्रेम – अनुराग, दुलार, प्रणय, प्रीति, प्यार, मनुहार, राग, स्नेह।

प्रौढ़ – अधेड़, परिपक्व, पोढ, प्रगल्भ, बालिग, वयस्क, सयाना।

प्रौढा – चिरिण्टी, प्रगल्भा, श्यामा, सुवया।

प्याऊ – जलसत्र, पानीयशाला, पानीयशालिका, पौसर, पौसरा, प्रण।

प्याज – दीर्घपत्र, नृपकन्द, नृपाह्वय, नृपेष्ट, पलाण्डु, पियाज, महाकन्द, यवनेष्ट, रक्तकन्द, राजपलाण्डु, राजप्रिय, राजेष्ट, रोचक।

प्यादा – पद्ग, पदग, पदचर, पदाति, पदिक, पत्ती, पादात, सैनिक।

प्यार – अनुराग, दुलार, प्रणय, प्रीति, प्रेम, मनुहार, राग, स्नेह।

प्यास – उदन्या, उपलासिका, कामना, तर्ष, तास, तृषा, तृष्णा, पानेच्छा, पिपासा, पियास, प्यास, ललक, लालसा।

प्यासा – इच्छुक, तृषित, पिपासित, पिपासु, लालायित।

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‘उ एवं ऊ’ के पर्यायवाची शब्द (भाग-5)

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पर्यायवाची शब्द Paryayvachi Shabd

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ख के पर्यायवाची शब्द | समानार्थी | Hindi Synonym | भाग-10

ग के पर्यायवाची शब्द | समानार्थी | Hindi Synonym | भाग-11

घ के पर्यायवाची शब्द | समानार्थी | Hindi Synonym | भाग-12

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आदिकाल की प्रमुख पंक्तियाँ

आदिकाल की प्रमुख पंक्तियाँ

हिंदी साहित्य की इस पोस्ट में आप जानेंगे आदिकाल के प्रमुख कवियों की महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख पंक्तियाँ

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aadikal ki pramukh panktiyan

1- “नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल, चिअराअ सहावै मूक्ल”— सरहपा

2- “पंडिअ सअल सत्त बक्खाणई। देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ”— सरहपा

3- “भल्ला हुआ जू मारिया बहिणि महारा कंत
लज्जेजं तु वयंसिअहु जड़ भग्गा घरु एतु”— हेमचंद्र

4- “बारह बरस लौ कूकर जीवै, अरु तेरह लौं जियै सियार ।
बरस अठारह क्षत्रिय जीवें, आगे जीवन का धिक्कार”— जगनिक

5- “मनहु कला ससिभान……. । कुहिल केस सुदेस….।”— चंदबरदायी

6- “प्रिय प्रिथिराज नरेस जोग……। बज्जिय घोर निसान …..।”—चंदबरदायी

7- “बुरासान मुलतान खंधार मीर……दिक्खंत दिट्ठि उच्चारिय।”—चंदबरदायी

8- “कामिनी करेए सनाने, हरे तहि हृदय हनए पंचबाने।”— विद्यापति

9- “जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपति भेल।”— विद्यापति

आदिकाल की प्रमुख पंक्तियां

10- “माधव हम परिनाम निरासा”— विद्यापति

11- “जोइ-जोइ पिण्डे सोइ ब्रह्माण्डे”— गोरखनाथ

12- “पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृपकाज”— चंदबरदायी

12- “गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने रैन भइ चहुँ देश”— अमीर खुसरो (गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर)

14- “गोरख जगायो जोग, भक्ति भगायो लोग”— तुलसीदास

15- “नौलख पातरि आगे नाचे पीछे सहज अखाड़ा”— गोरखनाथ

16- “देसिल बयना सब जन मिट्ठा।”—विद्यापति

आदिकाल की प्रमुख पंक्तियां

17- “काआ तरुवर पंच विडाल”— लुइपा

18- “जो जिण सासण भाषि यउ सो भइ कहियड सारु….सो सरि पावइ पारु।”— देवसेन

19- “मेरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल।”— अमीर खुसरो

20- “इणि पर कोइलि कूजइ, पूंजइ युवति मणोर।
विधुर वियोगिनि धूजई, कूजइ मयण किसोर”— बसंत विलास

21- “नोलख पातरि आगे नाचे, पीछे सहज अखाड़ा।”— गोरखनाथ

22- “ऐसे मन ले जोगी खेले, तब अंतरि बसे भंडारा।”— गोरखनाथ

23- “अंजन माहि निरंजन भेट्या, तिलमुख भेटया तेल।
मूरत माहि अमूरत परस्या भया निरंतर खेल।”— गोरखनाथ

24- “हम्मीर कज्ज जज्ज्ल भण्इ फोहानल यह मइ जलउ।
सुलितान सीस करवाल दह तज्जि कलेवर दिअचलेउ।”— शार्ङ्गधर

25- “संदेसा पिन साहिबा, पाछो फिरिय न देह।
पंछी घाल्या पिंज्जरे, छूटण रो सन्देह।”— दलपति विजय

26- “सोरठियो दूहा भलो, भली मरवण री बात।
जोबन छाई धण भली, तारां छायी रात।”— ढोला मारू रा दूहा

27- “चू मन तूतिए-हिन्दुम, अर रास्त पुर्सी।
जे मन हिन्दुई पुर्ख, ता नाज गोयम।”— अमीर खुसरो (इसका अर्थ यह है— मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो जिसमें मैं कुछ अद्भुत बातें बता सकूँ।)

आदिकाल में गद्य साहित्य

आदिकाल की प्रमुख पंक्तियाँ

रीतिकाल की पूरी जानकारी

रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ

नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ

पर्यायवाची शब्द (महा भण्डार)

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय

अरस्तु और अनुकरण

कल्पना अर्थ एवं स्वरूप

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

आदिकाल में गद्य साहित्य Aadikal ka gadya sahitya

आदिकाल में गद्य साहित्य aadikal ka gadya sahitya

काव्य रचना के साथ-साथ आदिकाल में गद्य साहित्य रचना के भी प्रयास लक्षित होते हैं जिनमें कुवलयमाला, राउलवेल, उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण, वर्ण रत्नाकर उल्लेखनीय रचनाएं हैं।

आदिकाल का गद्य साहित्य आदिकाल में गद्य साहित्य adikal me gadya sahitya
आदिकाल का गद्य साहित्य आदिकाल में गद्य साहित्य adikal me gadya sahitya

कुवलयमाला — उद्योतनसूरि (9 वीं सदी)

“कुवलयमाला कथा में ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें बोलचाल की तात्कालिक भाषा के नमूने मिलते हैं।”— आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

राउलवेल — रोड कवि 10 वीं शती

राउलवेल का अर्थ — राजकुल का विलास
वेल/ वेलि का अर्थ = श्रृंगार व कीर्ति के सहारे ऊपर की ओर उठने वाली काव्य रूपी लता।

संपादन:- डाॅ• हरिबल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
प्रकाशन  ‘भारतीय विद्या पत्रिका’ से

यह एक शिलांकित कृति है।
मध्यप्रदेश  के (मालवा क्षेत्र)  धार जिले से प्राप्त हुई है और वर्तमान में मुम्बई के ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय’ में सुरक्षित है।

यह हिन्दी की प्राचीनतम (प्रथम) चम्पू काव्य (गद्य-पद्य मिश्रित) की कृति  है।

हिन्दी में नख-शिख सौन्दर्य वर्णन का आरम्भ इसी ग्रंथ से होता है।

आदिकाल की प्रमुख पंक्तियाँ

यह वेल/वेलि/ बेलि काव्य परम्परा की प्राचीनतम कृति है।

इसमें हिन्दी की सात बोलियों ( भाषाओं ) के शब्द मिलते हैं जिसमें राजस्थानी की प्रधानता है ।

इसमें नायिका सात नायिकाओं के नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन मिलता है।

आदिकाल में गद्य साहित्य

“इस शिलालेख (राउलवेल) का विषय कलचरि राजवंश के किसी सामंत की सात नायिकाओं का नखशिख वर्णन है। प्रथम नखशिख की नायिका का ठीक पता नहीं चलता। दूसरे नखशिख की नायिका महाराष्ट्र की और तीसरे नखशिख की नायिका पश्चिमी राजस्थान अथवा गुजरात की है। चौथे नखशिख में किसी टक्किणी का वर्णन है । पाँचवें नखशिख का सम्बन्ध किसी गौड़ीया से है और छठे नखशिख का सम्बन्ध दो मालवीयाओं से है। ये सारी नायिकायें इस सामंत की नव विवाहितायें हैं ।”― डाॅ• माता प्रसाद गुप्त

डाॅ• माता प्रसाद गुप्त के सम्पादन इसका एक संस्करण प्रकाशित हुआ। इन्होंने ‘इसका’ समय  10-11 वीं शताब्दी  तथा इसकी भाषा को सामान्यतः दक्षिणी कौशली माना है।

बच्चन सिंह ने इसका रचयिता  ‘ रोउ/ रोड’ कवि को माना है।

उक्तिव्यक्ति प्रकरण — दामोदर शर्मा (बारहवीं शती)

यह बनारस के महाराजा गोविंद चंद्र के सभा पंडित दामोदर शर्मा की रचनाएं है।

यह पाँच भागों में विभाजित व्याकरण ग्रंथ है।

रचनाकार ने इसकी भाषा अपभ्रंश बताई है।

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसकी भाषा पुरानी कौशली माना है।

रचना का उद्देश्य राजकुमारों को कान्यकुब्

ज और काशी प्रदेश में प्रचलित तात्कालिक भाषा ‘संस्कृत’ सिखाना था।

वर्ण रत्नाकर — ज्योतिश्वर ठाकुर (14वी शताब्दी)

रचना 8 केलों (सर्ग) में विभाजित है।

इसे मैथिली का शब्दकोश भी कहा जाता है।

इसका ढांचा विश्वकोशात्मक है।

डॉ सुनीति कुमार चटर्जी तथा पंडित बबुआ मिश्र द्वारा संपादित कर रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से प्रकाशित करवाई गई।

विविध तथ्य

पृथ्वीचंद्र की ‘मातृकाप्रथमाक्षरादोहरा’ को प्रथम बावनी काव्य माना जाता है।

‘डिंगल’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जोधपुर के कविराजा बाँकीदास की ‘कुकवि बत्तीसी’ (सं. 1817 वि.) में हुआ है।

‘जगत्सुंदरी प्रयोगमाला’ एक वैद्यक ग्रंथ है। इसके रचयिता अज्ञात हैं।

दोहा-चौपाई छंद में ‘भगवद्गीता’ का अनुवाद करने वाला हिंदी का प्रथम कवि भुवाल (10वीं शती) हैं।

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रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ

नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ

पर्यायवाची शब्द (महा भण्डार)

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय

अरस्तु और अनुकरण

कल्पना अर्थ एवं स्वरूप

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

साहित्यिक ग्रन्थों के भाग या छंद

साहित्यिक ग्रन्थ व उनके भाग या छंद

साहित्यिक ग्रन्थों के भाग या छंद अथवा दोहों की संख्या, शब्द, अध्याय आदि की संख्या की पूरी जानकारी|

साहित्यिक ग्रन्थों के भाग या छंद
साहित्यिक ग्रन्थों के भाग या छंद

सूरज प्रकाश- 7500 छंद

खुमाण रासौ- 08 खंड / 3500 छ्न्द

संगत रासौ- 943 छंद

वीर सतसई- 713 दोहे

बिहारी सतसई- 713 दोहे

राजस्थानी शब्द कोश- 10 खंड/2 लाख शब्द

संगीतराज- 05 भाग

पृथ्वीराज रासौ- 69 समयो/अध्याय

वंश भास्कर- 08 जिल्द

रणमल छन्द- 70 छंद

राजवल्लभ- 14 अध्याय

हम्मीर महाकाव्य- 14 सर्ग

चेतावणी रा चुंगटिया- 13 सोरठे

वीर विनोद- 04 भाग

बांता री फुलवारी- 14 खंड

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Abdul Kalam Motivational Quotes

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Abdul Kalam Quotes कोट्स
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अब्दुल कलाम के अनमोल वचन अथवा विचार
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अपने लक्ष्य में कामयाब होने के लिए, आपको अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्त निष्ठावान होना पड़ेगा।

 

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छोटा लक्ष्य अपराध है, लक्ष्य महान होना चाहिए।

 

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अपने कार्य में सफल होने के लिए आपको एकाग्रचित्त होकर अपने लक्ष्य पर ध्यान लगाना चाहिए।

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जैन साहित्य ( Jain Sahitya ) की जानकारी

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jain sahitya

हिंदी कविता के माध्यम से पश्चिम क्षेत्र (राजस्थान, गुजरात) दक्षिण क्षेत्र में जैन साधु ने अपने मत का प्रचार किया।

जैन कवियों की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में प्राप्त होती है।

  • ‘आचार शैली’ के जैन काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशत्मकथा को प्रधानता दी गई है।
  • फागु और चरितकाव्य शैली की सामान्यता के लिए प्रसिद्ध है।
  • ‘रास’ शब्द संस्कृत साहित्य में क्रीड़ा और नृत्य से संबंधित था।
  • भरत मुनि ने इसे ‘क्रीडनीयक’ कहा है।
  • अभिनव गुप्त ने ‘रास’ को एक प्रकार का रूपक बना है।
  • ‘रास’ शब्द लोकजीवन में श्रीकृष्ण की लीलाओं के लिए रूढ़ हो गया था, जो आज भी प्रचलित है।
  • जैन साधुओं ने ‘रास’ को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप प्रदान किया।
  • जैन तीर्थंकरों के जीवन चरित्र तथा विष्णु अवतारों की कथा जैन आदर्शों के आवरण में ‘रास’ नाम से पद्यबद्ध की गई।

‘रास’ परंपरा से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • ‘रिपुदारणरास’ (संस्कृत भाषा) (डॉ. दशरथ ओझा ने इसका समय 905 ई. माना है।) – ‘रास’ परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ
  • ‘उपदेशरसायनरास’ – ‘रास’ परंपरा का अपभ्रंश में प्रथम ग्रंथ
  • ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ (1184 ई) – ‘रास’ परंपरा का हिंदी में प्रथम ग्रंथ
  • ‘संदेश रासक’ (यह ग्रंथ जैन साहित्य से संबंधित नहीं बल्कि जन काव्य है।) – ‘रास’ परंपरा का प्रथम धर्मेतर रास ग्रंथ
  • शालिभद्र सूरि-II – ‘रास’ परंपरा का हिंदी का प्रथम ऐतिहासिक रास ‘पंचपांडव चरित रास (1350 ई.)

जैन मत संबंधी रचनाएँ दो तरह की हैं

प्रायः दोहों में रचित ‘मुक्तक काव्य’ में अंतस्साधना, धर्म सम्मत व्यवहार व आचरण, उपदेश, नीति कर्मकांड, वर्ण व्यवस्था आदि से संबंधित खंडन मंडन की प्रवृत्ति पायी जाती है।

जैन तीर्थंकरों तथा पौराणिक जैन साधकों की प्रेरणादायी जीवन कथा या लोक प्रचलित हिंदू कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार करने के लिये ‘चरित काव्य’ आदि लिखे गए हैं।

कृष्ण काव्य को जैन साहित्य में ‘हरिवंश पुराण’ कहा गया है।

जैन साहित्य ( Jain Sahitya ) की विशेषताएं

  • वर्ण्य विषय की विविधता (अलौकिकता के आवरण में प्रेमकथा, नीति, भक्ति इत्यादि)।
  • बाह्यचारों (कर्मकाण्ड़ रूढ़ियों तथा परम्पराओं) का विरोध।
  • चित्त शुद्धि पर बल।
  • घटनाओं के स्थान पर उपदेशत्मकता का प्राधान्य
  • उपदेश मूलकता।
  • शांत रस की प्रधानता।
  • काव्य रूपों में विविधता (आचार, रास, फागु, चरित विविध शैलियां)।
  • आदिकाल का सबसे प्रामाणिक और विश्वसनीय साहित्य।
  • धार्मिक होने पर भी साहित्यिकता अक्षुण्ण है।
  • तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण।
  • आत्मानुभूति पर विश्वास।
  • छंद वैविध्य (कड़वक, पट्पदी, चतुष्पदी, धत्ता बदतक, अहिल्य, बिलसिनी, स्कन्दक, दुबई, रासा, दोहा, उल्लाला, सोरठा, चउपद्य आदि )।
  • अलंकार योजना (अर्थालंकारों में रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यक्तिरेक, उल्लेख, अनन्वय, निदर्शना, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, भ्रान्ति, सन्देह आदि शब्दालंन्कारों में श्लेष, यमक, और अनुप्रास की बहुलता है।)।

प्रमुख जैन कवि एवं आचार्य

आचार्य देव सेन

इनकी प्रमुख रचना ‘श्रावकाचार’ (933 ई.) है।

‘श्रावकाचार’ 250 दोहों का एक खंडकाव्य है, जिसमें श्रावकधर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है।

‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।

अन्य रचनाएं

नयचक्र (लघुनयचक्र) ― सबसे प्रसिद्ध रचना

वृहद्नयचक्र (यह मूलतः दोहाबंध (अपभ्रंश भाषा) में था, किंतु बाद में माइल्ल धवल ने गाथाबंध (प्राकृत भाषा) में कर दिया।)

दर्शन सार

आराधना सार

तत्व सार

भाव संग्रह

सावयधम्म दोहा

शालिभद्र सूरि

शालिभद्र सूरि ने 1184 ईस्वी में ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ नामक ग्रंथ की रचना की।

यह 205 छंदों का खंडकाव्य है, जिसमें भगवान ऋषभ के पुत्र भरतेश्वर तथा बाहुबली के युद्ध का वर्णन है।

इसका संपादन मुनि जिनविजय ने किया है

मुनि जिनविजय ने ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ को जैन साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है।

शालिभद्र सूरि के ‘बुद्धि रास’ का संग्रह उनके शिष्य सिवि ने किया था।

शालिभद्र सूरि को गणपति चंद्रगुप्त ने हिंदी का प्रथम कवि माना है।

आसगु कवि

इनके द्वारा 1200 ई. में जालौर में ‘चंदनबाला रास’ नामक 35 छंदों के लघु खंडकाव्य की रचना की गई।

‘चंदनबाला रास’ चंपा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री चंदनबाला की करुण कथा वर्णित है।

कथा के अंत में चंदनबाला का उद्धार भगवान महावीर द्वारा किया गया वर्णित है।

अंगीरस — करुण।

अन्य रचना — जीव दया रास।

जिनधर्मसूरि

इन्होंने 1209 ईस्वी में ‘स्थूलिभद्र रास’ नामक ग्रंथ की रचना की।

इस ग्रंथ में स्थूलिभद्र तथा कोशा नामक वेश्या की प्रेम कथा वर्णित है।

कोशा वेश्या के पास भोगलिप्त रहने वाले स्थूलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है‌।

इसकी भाषा अपभ्रंश प्रभावित हिंदी है।

सुमति गणि

सुमति गणि ने 1213 ई. में ‘नेमिनाथ रास’ की रचना की।

58 छंदों की इस रचना में नेमिनाथ तथा कृष्ण का वर्णन है।

इसकी भाषा अपभ्रंश प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।

विजयसेन सूरि

उन्होंने 1231 ई. में ‘रेवंतगिरिरास’ नामक ग्रंथ लिखा।

इस ग्रंथ में नेमिनाथ की प्रतिमा तथा रेवंतगिरी नामक तीर्थ का वर्णन है।

विनयचंद्र सूरि

इनकी रचना ‘नेमिनाथ चउपई’ है।

चौपाई छंद में ‘बारहमासा’ का वर्णन इसी ग्रंथ से आरंभ माना जाता है।

अन्य रास काव्य एवं कवि

  • आबूरास (1232 ई.)— पल्हण
  • गय सुकुमार रास (14वीं शती) — देल्हण
  • पुराण-सार — चंद्रमुनि
  • योगसार — योगचंद्र मुनि

फागु काव्य

  • ‘फागु’ बसंत ऋतु, होली आदि के अवसर पर गाया जाने वाला मादक गीत होता है।
  • सर्वाधिक प्राचीन फागु-ग्रंथ जिनचंद सूरि कृत ‘जिनचंद सूरि फागु’ (1284 ई.) को माना जाता है। इसमें 25 छंद हैं।
  • ‘स्थूलिभद्र फागु’ को इस काव्य परंपरा का सर्वाधिक सुंदर ग्रंथ माना गया है।
  • ‘विरह देसावरी फागु‘ व ‘श्रीनेमिनाथ फागु‘ राजशेखर सूरि कृत इसी परंपरा के अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
  • ‘बसंतविलास फागु’ धर्मेतर फागु ग्रंथ है।

जैन-साहित्य का वर्गीकरण

(1) चरित काव्य—

1. पउमचरिउ / पदमचरित, रिट्टणेमिचरिउ — स्वयंभू

2. तिरसठी महापुरिस गुणालंकार, जसहर चरिउ, णयकुमार चरिउ — पुष्पदंत

3 भविसयत्तकहा — घनपाल (11 वीं शती)

4 जम्बुसामि चरिउ — वीर (1019 ई.)

5. करकंड चरिउ — कनकामर मुनि (1065 ई.)

6. पास चरिउ / पार्श्वचरित — पद्मकीर्ति (1077 ई.)

7. पदमश्री चरित — घाहिल (1134 ई.)

8. सुदंसण चरिउ — नयनन्दी मुनि (1553 ई.)

(2) मुक्तक काव्य

1. परमात्म प्रकाश — योगीन्दु (10वीं शती )

2. योगसार — योगीन्दु (10वीं शती)

3 सावय धम्म दोहा, श्रावकाचार — देवसेन (990 वि.)

4. पाहुड़ दोहा — रामसिंह (10-11वीं शती)

5. वैराग्यसार — सुप्रभाचार्य (11-12वीं शती)

6. भावना संधि प्रकरण — जयदेवमुनि (11वीं शती)

7. कालस्वरूप कुलक उपदेश रसायन चाचरि — जिनदत्त सूरि (1131-1220)

8. संयम मंजरी — महेश्वर सूरि (1561 वि.)

9. कछूलीरास प्रज्ञातिलक (1306 ई.)

10. गयसुकुमालरास — दल्हण (14वीं शती)

11. जिनपद्मसूरि पट्टाभिषेक रास — सारमूर्ति (1333 ई.)

(3) जैन रास-काव्य

1. भरतेश्वर बाहुबली रास — शालिमद्रसूरि 1184 ई.

2. बुद्धिरास — शालिभद्रसूरि 1200 ई. –

3. चंदबालारास — आसगु 1200 ई.

4. जीवनदयारास — आसगु 1200 ई.

5. स्थूलिमद्ररास — जिनधर्मसूरि – 1209

6. रेवतगिरिरास — विजयसेन सूरि

7. आबूरास — पल्हण 1232 ई.

8. नेमिनाथरास — सुमतिगणि 1213 ई.

(4) जैन फागु-काव्य

1. जिनचंदसूरि फागु — जिनदत्त सूरी 1285 ई. यह (सबसे प्राचीन फागु है।)

2. सिरिथूलिभद्द (स्थूलिभद्र) फागु — जिनपद्म सूरि (1333 ई.)

3. नेमिनाथ फागु — राजशेखर सूरि (1348 ई.)

4. जम्बूस्वामी फागु — रचनाकाल एवं रचयिता अज्ञात

5. बसंतविलास फागु — रचयिता अज्ञात (1350 ई.) श्रृंगार रस का प्राधान्य।

5. अन्य

1. जय तिहुअण — अभयदेव सूरि

2. पुराण सार — चंद्रमुनि

3. संघपट्टक — जिन वल्लभ सूरि

4. कुमार पाल प्रतिबोध — सोमप्रभ सूरि

5. नेमिनाथ फाग — राजशेखर सूरि

6. जम्मू स्वामी रासा — धर्मसूरि

7. संघपति समरा रासा — अबदेव सूरि

8. उपदेश रसायन — जिनदत्त सूरि (80 पद्यो की इस रचना में 29 मात्राओं वाला रासक छंद प्रयुक्त हुआ है।)

रीतिकाल की पूरी जानकारी

रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ

नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ

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नाथ साहित्य (Nath Sahitya ) एक परिचय

नाथ साहित्य ( Nath Sahitya ) एक परिचय

वज्रयानी सिद्धों के भोग प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया स्वरुप विकसित नाथ मत में जो साहित्य जन भाषा में लिखा है, हिंदी के नाथ साहित्य  ( Nath Sahitya ) की सीमा में आता है। ‘ नाथ साहित्य एक परिचय ’ में हम जानेंगे-

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नाथ साहित्य Nath Sahitya

सब नाथों में प्रथम आदिनाथ स्वयं शिव माने जाते हैं।

नाथ पंथ को चलाने वाले मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ थे।

गोरखनाथ द्वारा परिवर्तित योगी संप्रदाय को बारहपंथी भी कहा जाता है।

इस मत के योगी कान फड़वा कर मुद्रा धारण करते हैं, इसलिए इन्हें ‘कनफटा योगी’ या ‘भाकताफटा योगी’ भी कहा जाता है।

नाथों की संख्या – नाथ साहित्य ( Nath Sahitya ) एक परिचय

गोरक्ष सिद्धांत संग्रह के अनुसार नवनाथ-

1. नागार्जुन
2. जड़भरत
3. हरिश्चंद्र
4. सत्यनाथ
5. भीमनाथ
6. गोरक्षनाथ
7. चर्पटनाथ
8. जलंधरनाथ
9. मलयार्जुन

डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार के अनुसार नवनाथ-

1. आदिनाथ
2. मत्स्येंद्रनाथ
3. गोरखनाथ
4. गाहिणीनाथ
5. चर्पटनाथ (चरकानंद)
6. चौरंगीनाथ
7. ज्वालेंद्रनाथ
8. भर्तनाथ
9. गोपीचंदनाथ

संपूर्ण नाथ साहित्य गोरखनाथ के साहित्य पर आधारित है।

नाथ साहित्य संवाद रूप में है।

मत्स्येंद्रनाथ/मछेंद्रनाथ तथा गोरक्षनाथ/ गोरखनाथ सिद्धों में भी गिने जाते हैं।

मच्छिंद्रनाथ चौथे बौधित्सव अवलोकितेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।

नाथों की साधना ‘हठयोग’ की साधना है।

हठयोग के ‘सिद्ध सिद्धांत पद्धती’ ग्रंथ के अनुसार ‘ह’ का अर्थ ‘सूर्य’ तथा ‘ठ’ का अर्थ ‘चंद्रमा’ माना गया है।

गोरखनाथ ने ‘षट्चक्र पद्धति’ आरंभ की।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने चौरंगीनाथ को पूरनभगत कहा है।

जलंधरनाथ बालनाथ के नाम से तथा नागार्जुन रसायनी के नाम से प्रसिद्ध थे।

नाथ पंथ का प्रभाव पश्चिमी भारत (राजपूताना, पंजाब) में था।

नाथ पंथ की विशेषताएं – नाथ साहित्य एक परिचय

बाह्याचार, कर्मकांड, तीर्थाटन, जात-पात, ईश्वर उपासना के बाह्य विधानों का विरोध।

अंतः साधना पर बल।

चित्त शुद्धि और सदाचार में विश्वास।

गुरू महिमा।

नारी निन्दा।

भोग-विलास की कड़ी निन्दा।

गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव।

इंद्रिय निग्रह, वैराग्य, शून्य समाधि, नाड़ी साधना, कुंडलिनी जागरण, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, षट्चक्र इत्यादि की साधना पर बल दिया।

उलटबांसी, रहस्यात्मकता, प्रतीक और रूपकों का प्रयोग।

सधुकड़ी भाषा का प्रयोग।

जनभाषा का परिष्कार।

गोरखनाथ – नाथ साहित्य एक परिचय

नाथ पंथ और हठयोग के प्रवर्तक गोरखनाथ थे।

गुरु गोरखनाथ के संपूर्ण जीवन परिचय एवं सभी रचनाओं एवं साहित्य को जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए।

गोरखनाथ के समय को लेकर विद्वानों में मतैक्य है—

राहुल सांकृत्यायन — 845 ई.

हजारीप्रसाद द्विवेदी — 9वीं शती

पीतांबरदत्त बड़थ्वाल — 11वीं शती

रामचंद्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा — 13वीं शती

यह मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे।

गोरखनाथ आदिनाथ शिव को अपना पहला गुरु मानते थे।

मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का ‘पहला गद्य लेखक’ माना है।

गोरखनाथ का नाथ योग ही वामाचार का विरोधी शुद्ध योग मार्ग बना।

डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ के 14 ग्रंथों को प्रामाणिक मानकर उनकी वाणियों का संग्रह ‘गोरखवाणी’ (1930) शीर्षक से प्रकाशित करवाया। यह 14 ग्रंथ निम्नांकित हैं—

1. शब्द
2. पद
3. शिष्या दर्शन
4. प्राणसंकली
5. नरवैबोध
6. आत्मबोध
7. अभयमात्रा योग
8. पंद्रहतिथि
9. सप्तवार
10. मछिंद्र गोरखबोध
11. रोमावली
12. ज्ञान तिलक
13. ग्यान चौंतीसा
14. पंचमात्रा।

इनके संस्कृत भाषा में लिखे ग्रंथ हैं-

1. सिद्ध-सिद्धांत पद्धति
2. विवेक मार्तंड
3. शक्ति संगम तंत्र
4. निरंजन पुराण
5. वैराट पुराण
6. गोरक्षशतक
7. योगसिद्धांत पद्धति
8. योग चिंतामणि आदि।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनकी 28 पुस्तकों का उल्लेख किया है।

गोरखनाथ का मुख्य स्थान गोरखपुर है।

“शंकराचार्य के बाद इतना- प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग ही था। गोरखनाथ अपने सबसे बड़े नेता थे।” —आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।

मछेंद्रनाथ

यह जाति से मछुआरे थे।

मीननाथ, मीनानाथ, मीनपाल, मछेंद्रपाल आदि नामों से प्रसिद्ध हुए।

यह जालंधर नाथ के शिष्य तथा गोरखनाथ के गुरु थे।

मत्स्येंद्रनाथ वाममार्ग मार्ग पर चलने लगे तब गोरखनाथ ने इनका उद्धार किया।

मत्स्येंद्रनाथ की 4 पुस्तकें हैं।

उनके पदों का संकलन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘नाथ सिद्धों की वाणियां’ शीर्षक से किया है।

“नाथ पंथ या नाथ संप्रदाय के सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योग संप्रदाय, अवधूत मत, अवधूत संप्रदाय आदि नाम भी प्रसिद्ध है।” —आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी।

“गोरखनाथ के नाथ पंथ का मूल भी बौद्धों की यही वज्रयान शाखा है। चौरासी सिद्धों में गोरखनाथ गोरक्षपा भी गिन लिए गए हैं। पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना मार्ग अलग कर लिया।” —आ.शुक्ल।

‘गोरख जगायो जोग, भक्ति भगायो लोग’ —तुलसीदास।

रीतिकाल की पूरी जानकारी

रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ

नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ

पर्यायवाची शब्द (महा भण्डार)

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय

अरस्तु और अनुकरण

कल्पना अर्थ एवं स्वरूप

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

कामायनी महाकाव्य की जानकारी

आदिकाल की उपलब्ध सामग्री

आदिकाल की उपलब्ध सामग्री

आदिकालीन हिंदी साहित्य की उपलब्ध सामग्री के दो रूप हैं- प्रथम वर्ग में वे रचनाएं आती हैं, जिनकी भाषा तो हिंदी है, परंतु वह अपभ्रंश के प्रभाव से पूर्णत: मुक्त नहीं हैं, और द्वितीय प्रकार की रचनाएं वे हैं, जिनको अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएं कहा जा सकता है। आदिकाल की उपलब्ध सामग्री इस प्रकार है-

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आदिकाल की उपलब्ध सामग्री

अपभ्रंश प्रभावित हिंदी रचनाएं इस प्रकार हैं-

(1) सिद्ध साहित्य
(2) श्रावकाचार
(3) नाथ साहित्य
(4) राउलवेल (गद्य-पद्य)
(5) उक्तिव्यक्तिप्रकरण (गद्य)
(6) भरतेश्वर-बाहुबलीरास
(7) हम्मीररासो
(8) वर्णरत्नाकर (गद्य)।

निम्नांकित रचनाएं अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएं मानी जा सकती हैं-

(1) खुमाणरासो
(2) ढोलामारू रा दूहा
(3) बीसलदेवरासो
(4) पृथ्वीराजरासो
(5) परमालरासो
(6) जयचंद्रप्रकाश
(7) जयमयंक-जसचंद्रिका
(8) चंदनबालारास
(9) स्थूलिभद्ररास
(10) रेवंतगिरिरास
(11) नेमिनाथरास
(12) वसंत विलास
(13) खुसरो की पहेलियां।

आदिकाल की उक्त सामग्री को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्नांकित वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं-

(1) सिद्ध-साहित्य
(2) जैन-साहित्य
(3) नाथ-साहित्य
(4) रासो-साहित्य
(5) लौकिक साहित्य
(6) गद्यरचनाएं।

(1) सिद्ध-साहित्य

सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्वों का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा है, हिंदी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है। महापंडित राहुल और प्रबोध चंद्र बागची सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। जिसमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है।

सिद्धों के नाम के अंत में आदर्शसूचक ‘पा’ जुड़ता है।

हिंदी में ‘संधा/संध्या’ भाषा का प्रयोग सिद्धों द्वारा शुरू किया गया।

हिंदी में ‘प्रतीकात्मक शैली’ का प्रयोग सिद्धों द्वारा शुरू किया गया।

प्रथम बौद्ध सिद्ध तथा सिद्धों में प्रथम सरहपा (सातवीं-आठवीं शताब्दी) थे।

सिद्धों में विवाह प्रथा के प्रति अनास्था तथा गृहस्थ जीवन में आस्था का विरोधाभास मिलता है।

सिद्ध कवियों में महामुद्रा या शक्ति योगिनी का अर्थ स्त्री सेवन से है।

इनकी साधना पंच मकार (मांस, मैथुन, मत्स्य, मद्य, मुद्रा) की है।

उन्होंने बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रचार किया तथा तांत्रिक विधियों को अपनाया।

बंगाल, उड़ीसा, असम और बिहार इनके प्रमुख क्षेत्र थे।

नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय इनकी साधना के केंद्र थे।

वज्रयान का केंद्र ‘श्री पर्वत’ रहा है।

मैथिली ग्रंथ ‘वर्ण रत्नाकर’ में 84 सिद्धों के नाम मिलते हैं।

सिद्धों की भाषा ‘संधा/संध्या’ भाषा नाम मुनिदत्त और अद्वयवज्र नें दिया।

सिद्ध साहित्य ‘दोहाकोश’ और ‘चर्यापद’ दो रूपों में मिलता है।

‘दोहों’ में खंडन-मंडन का भाव है जबकि ‘चर्यापदों’ में सिद्धों की अनुभूति तथा रहस्य भावनाएं हैं।

चर्चाएं संधा भाषा की दृष्टिकूटों में रचित है, जिनके अधूरे अर्थ हैं।

‘दोहाकोश’ का संपादन प्रबोध चंद्र बागची ने किया है।

महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्धों की रचनाओं का संग्रह बँगला अक्षरों में ‘बौद्धगान ओ दूहा’ के नाम से निकाला था।

वज्रयान में ‘वज्र’ शब्द हिंदू विचार पद्धति से लिया गया है। यह अमृत्व का साधन था।

‘दोहा’ और ‘चर्यापद’ संत साहित्य में क्रमशः ‘साखी’ और ‘शब्द’ में रूपांतरित हुए।

संत साहित्य का बीज सिद्ध साहित्य में विद्यमान है।

इनके चर्यागीत विद्यापति, सूर के गीतिकाव्य का आधार है।

डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों में 4 महिला सिद्धों का भी उल्लेख किया है।

सिद्धों की संध्या भाषा नाथों की वाणी से पुष्ट होकर कबीर की के साथ-साथ नानक मलूकदास में प्रवाहित हुई।

सिद्ध साहित्य की विशेषताएं-

(1) सहजता जीवन पर बल
(2) गुरू महिमा
(3) बाह्याडम्बरों और पाखण्ड विरोध
(4) वैदिक कर्मकांडों की आलोचना
(5) रहस्यात्मक अनुभूति
(6) शांत और श्रृंगार रसों की प्रधानता
(7) जनभाषा का प्रयोग
(8) छन्द प्रयोग
(9) साहित्य के आदि रूप की प्रामाणिक सामग्री
(10) तंत्र साधना पर बल
(11) जाति व वर्ण व्यवस्था का विरोध
(12) पंच मकार (मांस, मदिरा मछ्ली, मुद्रा, मैथुन) की साधना

प्रमुख सिद्ध कवि

1. सरहपा (आठवीं शताब्दी)

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपा सबसे प्राचीन और प्रथम बौद्ध सिद्ध हैं।
सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र, सरोरुह, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र इत्यादि कई नामों से प्रसिद्ध थे।
ये नालंदा विश्वविद्यालय में छात्र और अध्यापक थे।
इन्होंने ‘कड़वकबद्ध शैली’ (दोहा-चौपाई शैली) की शुरुआत की।
इनके 32 ग्रंथ माने जाते हैं, जिनमें से ‘दोहाकोश’ अत्यंत प्रसिद्ध है।

इनकी आक्रामकता, उग्रता और तीखापन कालांतर में कबीर में दिखाई देता है।
डॉ वी. भट्टाचार्य ने सरहपा को बंगला का प्रथम कवि माना है।
इनकी भाषा अपभ्रंश से प्रभावित हिंदी है।
पाखंड विरोध, गुरु सेवा का महत्त्व, सहज मार्ग पर बल इन के काव्य की विशेषता है।
“आक्रोश की भाषा का सबसे पहला प्रयोग सरहपा में दिखाई पड़ता है।”— डॉ. बच्चन सिंह

2. शबरपा

इनका जन्म 780 ई. में माना जाता है।
शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण शबरपा कहलाए।
इन्होंने सरहपा से ज्ञान दीक्षा ली।
‘चर्यापद’ इन की प्रसिद्ध रचना है।
क्रियापद एक और कार का गीत है जो प्रायः अनुष्ठानों के समय गाया जाता है।
माया-मोह का विरोध, सहज जीवन पर बल और इसे ही महासुख की प्राप्ति का पंथ बताया है।

3. लूइपा (8वी सदी)

यह शबरपा के शिष्य थे
84 सिद्धों में इनका स्थान सबसे ऊंचा माना जाता है।
यह राजा धर्मपाल के समकालीन थे।
रहस्य भावना इन के काव्य की विशेषता है।
उड़ीसा के राजा दरिकपा और मंत्री इनके शिष्य बन गए।

4. डोम्भिपा (840 ई.)

यह विरूपा के शिष्य थे।
इनके 21 ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें ‘डोंबी गीतिका’, ‘योगचर्या’, ‘अक्षरद्वीकोपदेश’ प्रसिद्ध है।

5. कण्हपा (9वी शताब्दी)

कर्नाटक के ब्राह्मण परिवार में 820 ई. में जन्म हुआ।
यह जलंधरपा के शिष्य थे।
इन्होंने 74 ग्रंथों की रचना की जिनमें अधिकांश दार्शनिक विचारों के हैं।
रहस्यात्मक गीतों के कारण जाने जाते हैं।
“यह पांडित्य एवं कवित्व में बेजोड़ थे।”— डॉ राहुल सांकृत्यायन
“कण्हपा की रचनाओं में उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी है, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। यही भेद हम आगे चलकर कबीर की ‘साखी’, रमैनी’ (गीत) की भाषा में पाते हैं। साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है पर रमैनी के पदों की भाषा में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है। “— आ. शुक्ल।

6. कुक्कुरीपा

यह चर्पटिया के शिष्य थे।
उन्होंने 16 ग्रंथों की रचना की।
‘योगभवनोंपदेश’ प्रमुख रचना है।

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आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य के अंतर्गत आदिकालीन अपभ्रंश के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं पढने के साथ-साथ आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य की विशेषताएं एवं प्रमुख प्रवृत्तियां आदि भी जानेंगे।

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डॉ. हरदेव बाहरी ने सातवीं शती से ग्यारहवीं शती के अंत तक के काल को ‘अपभ्रंश का स्वर्णकाल’ माना है।

अपभ्रंश में तीन प्रकार के बंध मिलते हैं-

1. दोहा बंध 2. पद्धड़िया बंध 3. गेय पद बंध।

पद्धरी एक छंद विशेष है, जिसमें 16 मात्राएँ होती है। इसमें लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंद कहा गया है।

अपभ्रंश का चरित काव्य पद्धड़िया बंध में लिखा गया है।

चरित काव्यों में पद्धड़िया छंद की आठ-आठ पंक्तियों के बाद धत्ता दिया रहता है, जिसे ‘कड़वक‘ कहते हैं।

जोइन्दु (योगेन्दु) छठी शती

रचनाएँ 1. परमात्म प्रकाश तथा 2. योगसार।

उक्त रचनाओं से ही अपभ्रंश से दोहे की शुरुआत मिलती है।

जोइन्दु से दोहा छंद का आरंभ माना गया है।

स्वयंभू (783 ई.)

स्वयंभू को जैन परंपरा का प्रथम कवि माना जाता है।

इनके तीन ग्रंथ माने जाते हैं-

1. पउम चरिउ (अपूर्ण)― 5 कांड तथा 83 संधियों वाला विशाल महाकाव्य है। यह अपभ्रंश का आदिकाव्य माना जाता है।
‘पउम चरिउ’ के अंत में राम को मुनीन्द्र से उपदेश के बाद निर्वाण प्राप्त करते दिखाया गया है।

2. रिट्ठेमणि चरिउ (कृष्ण काव्य)

3. स्वयंभू छंद।

उपाधि― कविराज – स्वयं द्वारा

छंदस् चूड़ामणि – त्रिभुवन

अपभ्रंश का वाल्मीकि – डॉ राहुल सांकृत्यायन

अपभ्रंश का कालिदास – डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी

‘पउम चरिउ’ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया।

अपभ्रंश में कृष्ण काव्य के आरंभ का श्रेय भी स्वयंभू को ही दिया जाता है।

स्वयंभू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया छंद का प्रवर्तक और श्रेष्ठ कवि कहा है।

स्वयंभू ने अपनी भाषा को ‘देशीभाषा’ कहा है।

पुष्यदंत

यह राम काव्य के दूसरे प्रसिद्ध कवि थे।

ये मूलतः शैव थे, परंतु बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध से जैन हो गए थे।

इनके समय को लेकर विवाद है। शिवसिंह सेंगर ने सातवीं शताब्दी और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नौवीं शताब्दी माना। अंतः साक्ष्य के आधार पर

सामान्यतः 972 ई. (10वीं शती) इनका समय माना जाता है।

रचनाएँ-

1. तिरसठी महापुरिस गुणालंकार (महापुराण) – इसमें में 63 महापुरुषों का जीवन चरित है।

2. णयकुमारचरिउ (नागकुमार चरित्र)

3. जसहर-चरिउ (यशधर चरित्र)।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके दो और ग्रंथों का उल्लेख किया है—

1. आदि पुराण

2. उत्तर पुराण

इन दोनों को चौपाइयों में रचित बताया है।

चरित काव्यों में चौपाई छंद का प्रयोग किया है।

अपभ्रंश में यह 15 मात्राओं का छंद था।

उपाधियाँ—

अभिमान मेरु/सुमेरु – स्वयं द्वारा

काव्य रत्नाकार – स्वयं द्वारा

कविकुल तिलक – स्वयं द्वारा

अपभ्रंश का भवभूति – डॉ. हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।

इन्हें अपभ्रंश का व्यास/वेदव्यास कहा जाता है।

इन्हें ‘सरस्वती निलय’ भी कहा जाता है।

यह स्वभाव से अक्खड़ थे तथा इनमें सांप्रदायिकता के प्रति जबरदस्त आग्रह था।‌

शिवसिंह सेंगर ने इन्हें ‘भाखा की जड़‘ कहा है।

धनपाल

दसवीं शती (933ई.) में ‘भविसयत्तकहा‘ की रचना की।

इन्हें मुंज ने ‘सरस्वती‘ की उपाधि दी थी।

‘भविसयत्तकहा’ का संपादन डॉ. याकोबी ने किया था।

जिनदत्त सूरि

इन्होंने अपने ग्रंथ ‘उपदेशरसायनरास’ (1114 ई.) से रास काव्य परंपरा का प्रवर्तन किया।

यह 80 पद्यों का नृत्य गीत रासलीला काव्य है।

अब्दुल रहमान (अद्दहमाण)

रचना- ‘संदेशरासक’ — देशी भाषा में किसी मुसलमान कवि द्वारा रचित प्रथम ग्रंथ था।

‘संदेशरासक’ में विक्रमपुर की एक वियोगिनी की व्यथा वर्णित हुई है।

इस खंडकाव्य का समय 12वीं शती उत्तरार्द्ध या 13वीं शती पूर्वार्द्ध माना गया है।

यह प्रथम जनकाव्य है।

विश्वनाथ त्रिपाठी ने इसकी भाषा को ‘संक्रातिकालीन भाषा’ कहा है।

मुनि रामसिंह

इन्हे अपभ्रंश का सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि माना जाता है।

रचना- ‘पाहुड़ दोहा’

हेमचंद्र

इनका वास्तविक नाम चंगदेव था।

प्राकृत का पाणिनि कहा जाता है।

इन्होंने गुजरात के सोलंकी शासक सिद्धराज जयसिंह के आग्रह पर ‘हेमचंद्र शब्दानुशासन’ शीर्षक से व्याकरण ग्रंथ लिखा।

इस ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तीनों भाषाओं का समावेश है।

अन्य रचनाएं – कुमारपाल चरित्र (प्राकृत) पुरुष चरित्र

देशीनाम माला।

आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

सोमप्रभ सूरि

रचना – ‘कुमारपालप्रतिबोध’ (1184 ई.) गद्यपद्यमय संस्कृत प्राकृत काव्य है।

मेरुतुंग

रचना – ‘प्रबंध चिंतामणि’ (1304 ई.)

संस्कृत भाषा का ग्रंथ है, किंतु इसमें ‘दूहा विद्या’ विवाद-प्रसंग मिलता है।

प्राकृत पैंगलम

इसमें विद्याधर, शारंगधर, जज्जल, बब्बर आदि कवियों की रचनाएँ मिलती हैं।

इसका संग्रह 14वीं शती के अंत लक्ष्मीधर ने किया था।

‘प्राकृत पैंगलम‘ में वर्णित 8 छंदों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने ‘हम्मीर रासो‘ की कल्पना की व इसके रचयिता शारंगधर को माना है।

डॉ राहुल सांकृत्यायन ने ‘हम्मीर रासो’ के रचयिता जज्जल नमक कवि को माना है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘हम्मीर’ शब्द किसी पात्र का नाम ना होकर विशेषण है जो अमीर का विकृत रूप है।

डॉक्टर बच्चन सिंह ने शारंगधर को अनुमानतः ‘कुंडलिया छंद’ का प्रथम प्रयोक्ता माना है।

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आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

इस पोस्ट में आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय, हिंदी का प्रथम कवि, हिंदी का प्रथम ग्रंथ, आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन एवं महत्त्वपूर्ण कथन शामिल हैं।

aadikal ka parichay
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आदिकाल का नामकरण — प्रस्तोता

चारण काल — जॉर्ज ग्रियर्सन

प्रारंभिक काल — मिश्रबंधु, डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त

बीजवपन काल — आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी

वीरगाथाकाल — आ. रामचंद्र शुक्ल

सिद्ध-सामत काल — महापंडित राहुल सांकृत्यायन

वीरकाल — आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

संधिकाल एवं चारण काल — डॉ. रामकुमार वर्मा

आदिकाल — आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी

जय काल — डॉ. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’

आधार काल — सुमन राजे

अपभ्रंश काल — डॉ. धीरेंद्र वर्मा, डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी

अपभ्रंश काल (जातीय साहित्य का उदय) — डॉ. बच्चन सिंह

उद्भव काल — डॉ. वासुदेव सिंह

सर्वमान्य मत के अनुसार आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सुझाए गए नाम ‘आदिकाल’ को स्वीकार किया गया है।

हिंदी का प्रथम कवि

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘सरहपा/ सरहपाद’ को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार किया है। सामान्यतया उक्त मत को स्वीकार किया जाता है।

हिंदी का प्रथम कवि कौन हो सकता है, इस संबंध में अन्य विद्वानों के मत इस प्रकार हैं—

1. स्वयंभू (8वीं सदी) ― डॉ. रामकुमार वर्मा।

2. सरहपा (769 ई.) ― राहुल सांकृत्यायन व डॉ. नगेन्द्र

3. पुष्य या पुण्ड (613 ई./सं. 670) ― शिवसिंह सेंगर

4. राजा मुंज (993 ई/ सं. 1050)- चंद्रधर शर्मा गुलेरी

5. अब्दुर्रहमान (11वीं सदी) ― डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी

6. शालिभद्र सूरि (1184 ई.) ― डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त

7. विद्यापति (15वीं सदी) ― डॉ. बच्चन सिंह

हिंदी का प्रथम ग्रंथ

जैन श्रावक देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें 250 दोहों में श्रावक धर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है। इसकी रचना 933 ई. में स्वीकार की जाती है।

आदिकालीन साहित्य की विशेषताएं/प्रवृतियां—

1. वीरता की प्रवृत्ति

2. श्रृंगारिकता

3. युद्धों का सजीव वर्णन

4. आश्रय दाताओं की प्रशंसा

5. राष्ट्रीयता का अभाव

6. वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता

7. ऐतिहासिक चरित काव्यों की प्रधानता

8. जन जीवन के चित्रण का अभाव

9. प्रकृति का आलंबन रूप

10. डिंगल और पिंगल दो काव्य शैलियां

11. संदिग्ध प्रामाणिकता

12. ‘रासो’ शीर्षक की प्रधानता

13. प्रबंध एवं मुक्तक काव्य रूप

14. छंद वैविध्य

15. भाषा ― अपभ्रंश डिंगल खड़ी बोली तथा मैथिली का प्रयोग

16. विविध अलंकारों का समावेश

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

आदिकाल में भाषाई आधार पर मुख्यतः दो प्रकार की रचनाएं प्राप्त होती हैं, जिन्हें अपभ्रंश की और देशभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा इन दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है। इसी आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल का विभाजन किया है।

इसके अंतर्गत केवल 12 ग्रंथों को ही साहित्यिक मानते हुए उसका वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है―

अपभ्रंश काव्य― विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका।

देश भाषा काव्य― खुमानरासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जय चंद्रप्रकाश, जय मयंक जस चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियां और विद्यापति पदावली।

उपयुक्त 12 पुस्तकों के आधार पर ही ‘आदिकाल’ का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं, अतः ‘आदिकाल’ का नाम ‘वीरगाथा काल’ ही रखा जा सकता है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने अपभ्रंश के लिए ‘प्राकृतभाषा हिंदी’, ‘प्राकृतिक की अंतिम अवस्था’ और ‘पुरानी हिंदी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।

आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

तात्कालिक बोलचाल की भाषा को विद्यापति ने ‘देशभाषा’ कहा है। विद्यापति की प्रेरणा से ही आचार्य शुक्ल ने ‘देशभाषा’ शब्द का प्रयोग किया है।

आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति का युग’ की संज्ञा दी है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोधी और व्याघातों’ का युग कहा है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी, गणपतिचंद्र गुप्त इत्यादि प्रबुद्ध विद्वान स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश और हिंदी के मध्य निर्णायक रेखा खींचना अत्यंत दुष्कर कार्य है अतः हिंदी साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से ही माननी चाहिए।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

“जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिये ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यवहार होने लगा।”― आ. शुक्ल।

“अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि.सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।”― आ. शुक्ल।

“अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्म-तत्त्व निरूपण ग्रंथ हैं जो साहित्य की कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। “― आ. शुक्ल।

“उनकी रचनाएँ (सिद्धों व नाथों की) तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ “― आ. शुक्ल।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

सिद्धों व नाथों की रचनाओं का वर्णन दो कारणों से किया है- भाषा और सांप्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा। “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिये बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”― आ. शुक्ल।

“चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिये अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है।… चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में तथा ‘छत्रप्रकाश’, ‘ब्रजविलास’, सबलसिंह चौहान के ‘महाभारत’ इत्यादि अनेक अख्यान काव्यों में पाते हैं।”― आ. शुक्ल।

“इसी से सिद्धों ने ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन किया। ‘महासुह’ (महासुख) वह दशा बताई गई जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में। इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध’ (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) की भावना की गई।”― आ. शुक्ल।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

“प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख दशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिये। निर्माण के तीन अवयव ठहराए गए- शून्य, विज्ञान और महासुख।… निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवाससुख के समान बताया गया।”― आ. शुक्ल।

‘अपने मत का संस्कार जनता पर डालने के लिये वे (सिद्ध) संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी (रचनाएँ) अपभ्रंश मिश्रित देशभाग में भी बराबर सुनाते रहे।’― आ. शुक्ल।

“सिद्ध सरहपा की उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी हैं, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। कबीर की ‘साखी’ की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है, पर रमैनी के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है।” ― आ. शुक्ल।

सिद्धों ने ‘संधा’ भाषा-शैली का प्रयोग किया है। यह अंत:साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।― आ. शुक्ल।

“गोररखनाथ का नाथपंथ बौद्धों की वज्रयान शाखा से ही निकला है। नाथों ने वज्रयानी सिद्धों के विरुद्ध मद्य, माँस व मैथुन के त्याग पर बल देते हुए ब्रह्मचर्य पर जोर दिया। साथ ही शारीरिक-मानसिक शुचिता अपनाने का संदेश दिया।”― आ. शुक्ल।

आदिकाल का सामान्य परिचय

“सब बातों पर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाड़ियों तथा स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है।”― आ. शुक्ल।

“राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।”― आ. शुक्ल।

“उस समय जैसे ‘गाथा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश का पद्य समझा जाता था।”―आ. शुक्ल।

“दोहा या दूहा अपभ्रंश का अपना छंद है। उसी प्रकार जिस प्रकार गाथा प्राकृत का अपना छंद है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी

आदिकाल का सामान्य परिचय

“इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिंदी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी (‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’)

“डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ, निर्गुणिया संतों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिंदी कवियों के रोमांस और रीति काव्य- ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी

रीतिकाल की पूरी जानकारी

रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ

नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ

रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ

पर्यायवाची शब्द (महा भण्डार)

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय

अरस्तु और अनुकरण

कल्पना अर्थ एवं स्वरूप

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

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कामायनी के विषय में कथन

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