हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan
हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan जीवन-परिचय, साहित्यिक योगदान, हरिवंश राय बच्चन की रचनाएं, भाषा व काव्य शैली | Harivansh Rai Bachchan
जीवन परिचय
जन्म- 27 नवम्बर 1907 इलाहाबाद, आगरा, ब्रितानी भारत (अब उत्तर प्रदेश, भारत)
मृत्यु -18 जनवरी 2003 (उम्र 95) मुम्बई, महाराष्ट्र,
अभिभावक – प्रताप नारायण श्रीवास्तव, सरस्वती देवी
पति/पत्नी – श्यामा बच्चन, तेजी सूरी
संतान- अमिताभ बच्चन, अजिताभ बच्चन
उपजीविका- कवि, लेखक, प्राध्यापक
भाषा- अवधी, हिन्दी
काल- आधुनिक काल, छायावादी युग (व्यक्ति चेतना प्रधान काव्यधारा या हालावाद )
हालावाद के प्रवर्तक
हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक योगदान
इस विषय में कोई दो राय नहीं है कि छायावादोत्तर गीति काव्य में बच्चन का श्रेष्ठ स्थान है।
बच्चन को इस पंक्ति का अग्रिम सूत्रधार माना जायेगा। बच्चन की कविता की सबसे बड़ी पूंजी है ‘अनुभूति’ उसके क्षीण होते उनकी कविता नंगी हो जाती है। क्योंकि अनुभूति की रिक्तता को कल्पना के फूलों और चिन्तन की छूपछांही की जाली से ढकने की कला से वह अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाएं शुद्ध गीतों में लक्षित की जा सकती है।
शुद्धता के सभी तत्व, व्यैक्तिकता, भावान्विति , संगीतात्मकता टेक, छन्द – विधान लय गीत सा उतार – चढ़ाव इत्यादि आलोच्य कवि के गीतों में गठित है।
अपने सर्वश्रेष्ठ गीतों के आधार पर ही बच्चन का स्थान हमारी पीढ़ी के कवियों में बहुत ऊँचा है।
छायावाद के कल्पनावैभव और अलंकृत बिम्ब – विधान से बच्चन के गीत बहुत दूर रहे हैं।
बच्चन की कल्पना का स्वर्ण – महल अनुभूति की दृढ़ – नींव पर स्थित है। कवि के अप्रस्तुत – किसान , बिम्ब , प्रतीक आदि का मुख्य कारण अनुभूति और कल्पना का अमूल्य सहयोग है।
बच्चन जी के गीतों में प्रत्येक प्राणी के हृदय का सागर – मन्थन ही स्वर पा है। उनके गीत जीवन संघर्ष की कुंभीपाल ज्वाला से तपकर एक दम खरे गीतों में अवश्यकतानुसार गया निकले है, कि उनका प्रभाव हिन्दी जगत पर अभूतपूर्व है।
परम्परागत और नवीन दोनों प्रकार के उपमानों का भी बड़ा सुन्दर समायोजन प्रस्तुत किया गया है। इसी कारण बच्चन की प्रतिभा का परिणाम इतना अधिक है कि समय के पन्नों से वह मिट नहीं सकेगें, इतिहास की कूर यवनिका उसकी ज्योति को मलिन करने में असमर्थ रहेगी।
हरिवंश राय बच्चन की रचनाएं
कविता संग्रह : हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan
तेरा हार (1929),(प्रथम)
मधुशाला (1935),
मधुबाला (1936),
मधुकलश (1937),
निशा निमंत्रण (1938),
एकांत संगीत (1939),
आकुल अंतर (1943),
सतरंगिनी (1945),
हलाहल (1946),
बंगाल का अकाल (1946),
खादी के फूल (1948),
सूत की माला (1948),
मिलन यामिनी (1950),
प्रणय पत्रिका (1955),
धार के इधर उधर (1957),
आरती और अंगारे (1958),
बुद्ध और नाचघर (1958),
त्रिभंगिमा (1961),
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962),
दो चट्टानें (1965),
बहुत दिन बीते (1967),
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968),
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969),
जाल समेटा (1973)
आत्मकथाएं
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969),
नीड़ का निर्माण फिर (1970),
बसेरे से दूर (1977),
दशद्वार से सोपान तक (1985)
विविध रचनाएं
बचपन के साथ क्षण भर (1934),
खय्याम की मधुशाला (1938),(अग्रजी के प्रसिद्ध कवि ‘ फिट्जेराल्ड’ कृत अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर अनुवाद किया है)
सोपान (1953),
मैकबेथ (1957),
जनगीता (1958),
ओथेलो (1959),
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959),
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960),
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960),
आधुनिक कवि (1961),
नेहरू: राजनीतिक जीवनचित्र (1961),
नये पुराने झरोखे (1962),
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
नागर गीत (1966),
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
किंग लियर (1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ (1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हंस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)
आ रही रवि की सवारी
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)
पुरस्कार एवं सम्मान : हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan
इनकी कृति ‘दो चट्टाने’ को 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मनित किया गया था।
इन्हे 1968 में ही सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
बिड़ला फाउण्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था।
बच्चन को भारत सरकार द्वारा 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
हरिवंश राय बच्चन संबंधी विशेष तथ्य
यह मूलतः आत्मानुभूति के कवि माने जाते हैं|
इनको ‘क्षयी रोमांस का कवि’ भी कहा जाता है|
इनको 1966 ई. में राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया गया था|
सन 1932 ई. में इन्होंने अपना प्रारंभिक साहित्यिक जीवन ‘पायोनियर’ के संवाददाता के रूप में प्रारंभ किया था।
हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan की भाषा शैली व काव्य शैली
“बच्चन जी की लोकप्रियता और सफलता का बहुत कुछ श्रेय उनकी सहज सीधी भाषा और शैली को है जो अनेक जटिल संवेदनाओं को भी बिलकुल सीधे और साफ रूप से अत्यन्त ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में समर्थ हैं।”
मूर्धन्य आलोचक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और राष्ट्रकवि दिनकर आदि हिन्दी साहित्य के निर्विवाद विद्वानों ने बच्चन की भाषा के विषय में ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं।
छायावादी कवि ने लाक्षणिक वक्ता से भाषा को दुरूह बना दिया था, बच्चन जी ने ही उसे इस वक्र भंगिमा से बचाया।
छायावादी गीतों की अपेक्षा बच्चन की भाषा अधिक संयोगावस्था में है और छायावादोत्तर गीतों की भाषा वियोगावस्था और जनसाधारण के अत्यन्त निकट है।
भाव की दृष्टि से भी हिन्दी साहित्य को बच्चन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त शैली की सरलता और माधुर्य की दृष्टि से भी हिन्दी कविता को बच्चन ने सबल बनाया है।
छायावादोत्तर गीतों की भाषा में शब्द-समाहार शक्ति अद्भुत है।
भाषा शैली व काव्य शैली
छायावादोत्तर काव्य में पर्यायों का प्रयोग बहुत कम हुआ है।
सच तो यह है कि “बच्चन ” ने ही “भाषा” का अपना स्कूल चलाया, कवि के अनुसार – “शब्दों के सबसे बड़े पारखी कान हैं आँख तो शब्दों के चिन्ह भर देखती है, पर शब्द और चिन्हों में उतना ही अंतर है, जितना की लिपि (नोटेशन) और संगीत में” वैसे कवि की भाषा में ओज, प्रसाद, माधुर्य तीनों प्रकार के गुणों के शब्द शामिल हैं परन्तु प्राधानता प्रसाद गुण की रही है उन्होंने भावाभिव्यक्ति के आधार पर नूतन शब्द-समाहार शक्ति का आदर्श पथ निर्मित किया है।
प्रतीकों की भाँति बच्चन जी ने अपने काव्य में बिम्बों का भी सफल प्रयोग किया है।
जिनका संवेदन तत्व पाठक के मन पर तत्काल प्रभाव छोड़ता है।
कवि बच्चन निराशा, अपराजेय, जिजीविषा के बीच, नियति के विरूद्ध, समाज के विरुद्ध अग्निपथ के ओजस्वी कवि के रूप में प्रतिपल आगे ही बढ़ने की शपथ खा, शाश्वत मानव के सफल- विफल महासंघर्ष को सांस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक आवरण से मुक्त कर, उसके मूल रूप को बिम्बात्मक रूप में सफलतापूर्वक व्यक्त करते हैं।
काव्य गीतों में प्रतीकों के प्रयोग के बारे में कवि बच्चन की धारणा है -“कि जब कवि की तीव्रतम भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्यग होती हैं। तब एक अर्थी अथवा दो अर्थी भी शब्द उसका साथ देने को तैयार नहीं होते, उसे प्रतीकों का सहारा लेना ही पड़ता है।”
प्रमुख पंक्तिया
“जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से, पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?”
“है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनियाँ”- व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज साधारणीकरण दुर्लभ है।”
“मृदु भावों के अंगूरों की
आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से
आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा,
फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत
करती मेरी मधुशाला।।”
“मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,”
“हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं –
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!”
“इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,”